नेपाल से एक सुखद यात्रा ः देहरादून से अयोध्या तक
सन् १९९० में भारत से मेरे लौटने के तकरीबन तीन दशकबाद इसबार पारीवारिक भारत यात्रा की एक योजना अचानक बनी । तब अपनी अब तक की आधी उम्र तक भारत में रहने के पश्चात अपने घर नेपाल वापसी की थी मैने । लौटने के बाद आनन फानन में बरसों बित गये । पलटकर कभी उन लम्हों को बारीकी से स्मरण करने का अवसर भी प्राप्त नहीं हुआ । इसबीच गंगा जमुना और ब्रम्हापूत्र नदी और नद में काफी पानी बह चुका था । समय के रफ्तार के साथ साथ सब कुछ बदलता गया था । तबकी पीढी अब उम्रदराज हो चुकी थी । उसके बदले में आयी नयी पीढी के दम पर हिन्दूस्तान और तरुण हो चला था । इन दिनों मैं पता नहीं क्यों मैं गती से कहीं अधिक स्थिरभाव और सामुहिकता से कहीं अधिक एकान्त प्रिय हो चला हुँ फिर भी तरुणाई से भरे इस बदलाव को नजदीक से महसुस करते हुये पुरानी यादों को पुनरताजगी देने के लिए भी इस यात्रा को अंजाम देने के लिए मैं उत्सुक था । इस यात्रा की हमारी छोटी और नितान्त पारिवारिक समूह में भाई लक्ष्मण और उनकी पत्नि गिता और मैं और मेरी जीवन संगिनी गंगा थे । सच कहुँ तो मुझे इस यात्रा के लिए उत्प्रेरित करने में तीनों की भूमिका कम न थी ।
भारत के सुदूर पूर्वी असाम से बहती लोहित (ब्रम्हपूत्र) किनारे हिलोरें मारती पुरवाई के झोकों से खेलते हुये मेरी पच्चीसी बिती थी । मेघालय, नागालैण्ड की वादियों में रमना मेरी चर्या थी । इसके अलावा बंगाल, बिहार और उत्तरप्रदेश के कई शहरों और कस्बों का एक सैलानी की तरह सैर की थी मैंने । आमलोगों के जनजीवन नजदीक से परखने की मेरी शौक मुझे यह सब करवाता था । हिन्दूओं का देवभूमि कहलानेवाला उत्तराखण्ड के इस हिस्से को नजदीक से परखने का अवसर मुझे तब नही मिला था । आखिर में मैंने यात्रा के लिए हामी भरी थी ।
भारत में उत्तराखण्ड के हरिद्वर, देहरादून यात्रा के केन्द्र तय करने में हमे आसानी हुई । यह इसलिए कि गंगा की ममेरी बहन भवानी के बेटे की शादी के लिए हरिद्वार के रायवाला से हमें न्यौता था । गत साल भी भवानी और भाई ऋषि ने बडे बेटे की शादी पर भी न्यौता दिया था परन्तु हम चाहते हुये भी शिरकत नहीं कर पाये थे । इसके अलावा मेरी चचेरी बहन जिनसे तकरीबन चालिस साल तक नहीं मिल पाया था उनसे देहरादून में मुलाकात करने की तीव्र ईच्छा थी । देहरादून पहुँचने के पश्चात गोरखा सौर्य की एतिहासिक गवाह नालापानी न जाऊँ, यह मेरे लिए संभव ही न था ।
फरवरी के दूसरे पखवाडे हमारी गृहनगरी पोखरा से हम बुटवल के लिए निकले । बुटवल पहुँचकर हमारी वयोवृद्ध मझली माँ से मिले । वह लम्बे समय से बिस्तर पकड चुकी है । वह हमें पहचानने की स्थिति में नहीं थी । उन्हें देखकर बहुत अफसोस हुआ। उस रात हम देवदह के खैरेनी में परिजन के प्रति सदा आदरभाव रखनेवाले प्रिय भाई कुल प्रसाद के यहाँ ठहरे । दूसरे दिन बलराम भौया हरी प्रसाद चाचा उनके परिवार और मेरे फुफेरे भाई प्रकाश, धनीराम और भाभियाें से मिले । उसी दिन अपरान्ह बुटवल से देहरादून के लिए नियमित चलनेवाली सुविधाजनक नेपाल भारत मैत्री बस से तीसरे दिन सुबह तकरीबन साढे छ बजे हिन्दूओं की पावनतीर्थ हरिद्वार पहुँचे ।
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हरिद्वार में गंगा नदी का नजारा |
गंगा नदी में कंचन पानी का बहाव, दोनाें तट पर बने मन्दिराें का मिलाजुला दृश्य आकर्षक था । हमारे हर की पौडी पहुँचते समय गंगा तट पर सुबह की आरती चल रही थी । यहाँ की आरती श्रद्धालुओं के लिए मुख्य आकर्षण थी । गंगा तट पर श्रद्धालुओं की बडी भीड उमड रही थी । मैने इन तमाम लोगों की ईश्वर के प्रति आस्था को मन ही मन नमन किया । लोग अशान्त जीवन से तंग आकर शान्ति की खोज में तीर्थों में जाते हैं । वहाँ जाकर कितने लोगों ने शान्तिका साक्षत्कार किया यह तो बताना मुश्किल है । हिन्दुओं के कई शास्त्रों में शान्ति की खोज बाहरी दूनियाँ में ढुंढने की वजाय अपने आप में खोजना आवश्यक बताया गया है । यह कथन कितनाें के लिए हकीकत है और कितनों के लिए नहीं– यह भी कहना सहज नहीं है । जो भी हो इन श्रद्धालुओं भीड की तन्मयता को देखकर तो मन प्रफुल्लित हो उठा । सच कहुँ तो मेरा तीरथ मन्दिर रुपी इमारतों से कहीं अधिक श्रद्धालुओं का श्रद्धाभाव था । कम समय में कुछ जगहों को देखने के बाद हम सभी ने अपरान्ह का भोजन भाई तमनाथ और बहन जमुना के निवास में किया । इसबीच मेरे स्मृती में गंगा तटपर उमडी श्रद्धाभाव के समन्दर हलचल करता रहा । भोजन के बाद जमुना ने हमें अटोरिक्शा के जरिए रायवाला शादीवाले घर तक हमें पहुँचाकर आतिथ्य प्रकट किया ।
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किरारे पर खडे बडे बेटे शुभम् और बहु कृतिका, बीच में बैठे दुल्हन नीलम और दुल्हा शिवम् |
रायवाला अर्थात् तीर्थनगरी हरिद्वार से चन्द दूरि पर अवस्थित बाजार रुप लेता हुवा एक कस्बा । यहाँ पीढियों से रह रहे नेपाली जिन्हें आजकल गोरखा भी कहा जाने लगा है, गढवाली और भारत के अन्य स्थानाें से आये लोगों की मिश्रित आवादी है । मुझे लगा कि यहाँ विभिन्न साँस्कृतियों के बीच अन्तरघुलन से एक साझे सँस्कृतिका विकास हो चला है । सभी लोगों में सरलता और हँसमिजाजी अनुभव किया जा सकता है ।
सन् १९५६, १८ जनवरी को देहरादून के आनन्द सिंह थापा के नेतृत्व में नेपाली भाषा आन्दोलन को शुरुआती दौर में ही आगे बढाया था । सिक्कीम के नरबहादुर भण्डारी, दिलकुमारी भण्डारी और भारत के तमाम नेपालीभाषी लोगों के प्रयास से आखिरकार सन् १९९२ मे नेपाली भाषा को आठवीं अनुसूचि में शामिल किया गया । नेपाली साहित्य के इतिहास में दार्जीलिङ कभी नेपाल से भी आगे हुवा करता था । मैं भारत के उत्तरपूर्वी राज्य असम, मेघालय, नागालैण्ड, पश्चिम बंगाल के दार्जीलिङ और सिक्कीम जैसे राज्यों में घुमता रहा हूँ । वहाँ की नेपाली जनमानस में नेपाली भाषा के प्रति जो सजीवता देखी जा सकती है वह यहाँ थोडा कम सा लगता है । जो भी हो बहुसँस्कृतियो के बीच सद्भावपूर्ण अन्तरघुलन होना स्वभाविक ही नहीं बहुत अच्छी बात है । हमें यही सब यहाँ देखने को मिला । ऐसी ही तस्विर गलभग समूचे उत्तराखण्ड की मालुम पडती है ।
रायवाला में ऋषिभाई और भवानी की हमारेप्रति आतिथ्य का यहाँ शब्दों में बयान करना असंभव है । पहली रात आपस में बैठकर उन से करीबी बातचित हुई । ऋषि ने अपने जीवन के प्रारम्भिक दौर की आपबीती सुनाई । संघर्ष की दास्ताँ सुनकर हमारा मन पसीज गया । जीवन के प्रारम्भिक दौर में उन्होनें बहुत कुछ झेला था । वे अभी सेना से सेवानिवृत समय बिता रहे हैं । उनके दोनों बेटे शुभम् और शिवम् फिलहाल सेना में हैं । बडे बेटे की बितेसाल शादी हो चुकी है । छोटे बेटे की शादी इसबार हो रही है जिस में हम मेहमान थे ।
शादी के दिन के लिए और तीन दिन बचे थे । घर में शादी की रौनक शुरु हो चुकी थी । आवश्क चिजों की खरिदारी और प्रबन्धन की अफरातफरी जोरों पर था । सभी लोग व्यस्त थे । नेपाल से गये हमलोगों के लिए चाहकर भी इस व्यस्तता में हाथ बटाने की गुन्जाइश न के बराबर थी । इसी मौके पर हमें पासपडोस में रहे मामी, सानी दीदी, धनकला दीदी और उनके परिवार के सदस्यों से मुलाकात करने का अवसर प्राप्त हुआ । सच कहें तो भाई लक्ष्मण, गिता और मेरे लिए यहाँ मिले सभी से पहली मुलाकात थी । अकेली गंगा ही थी जो सभी से परिचित थी । इन सभी के साथ उनका ननीहाल का रिश्ता था । उसी के जरिए हमारे उनके साथ रिश्तेदारी बनती थी । यहाँ आकर ही हमें पता चला कि सानी दीदी के बेटे दीपक के साथ देहरादून की मेरी चचेरी बहन की बेटी माया (जो मेरी रिश्ते से भान्जी थी) के साथ सालों पहले ब्याह हुई है । वक्त भी क्या खेल खेलता है सोचकर आश्चर्य लगता है ।
शादी के लिए बचे कुछ दिन में हम ने दीदी से मिलने के लिए देहरादून जाने का मन बना लिया था । ऋषि भाई को चिन्ता थी कि हम नये लोगों को दीदी के ठिकाने तक पहुँचने में कठिनाई न हो । हमारे पास दीदी का फोन नम्बर था । उन्हाेंने उसी नम्बर पर फोन किया और दीदी के साथ बातचित की । उसी दौरान इस नये रिश्ते का पता चला । फिर तो ऋषि भाई ने देहरादून में नौकरी कर रहे दीपक को फोन किया तब पता चला कि वे आज ही घर रायवाला आये हैं । फिर तो दीपक हमें दीदी, जो दीपक की सास लगती थी, के ठिकाने तक पहुचाने को सहर्ष तैयार हो गये थे । ऋषि ने यह जानकारी हमें दिया जो हमारे लिए खुशखबर था । इसतरह कल दोपहर के भोजन के बाद हम देहरादून के लिए निकलने वाले थे ।
दूसरे दिन दोपहरको दीपक अपनी गाडी लेकर आये और हम सभी रायवाला से देहरादून के लिए निकल पडे ।
रायवाला से देहरादून की दूरि तकरीबन ४१ किलोमिटर है । दीपक रास्ते में आनेवाले स्थानों के नाम और विषेशताऒं के वारे में बताते जा रहे थे । जो हमारे लिए कौतुहल का विषय था । दीपक भारतीय नौसेना से अवकाश के बाद देहरादून में किसी सेना से सम्बन्धित दफ्तर में नौकरी कर रहे थे । हम दिन ढलने के पहले ही दीपक के छोटभाइ पुष्कर के घर घट्टेखोला पहुँच गये थे । पुष्कर की पत्नि हेमा का स्वस्थ्य ठिक नहीं चल रहा था । उनकी स्वास्थ्य स्थिति जान कर हमें भी दुःख हुवा । दोनों हमें देखकर खुश हुये । कुछ देर बातचित के बाद हेमा को शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हुये दीपक और हम चारों दीदी के घर के लिए निकल पडे कुछ ही दूरि पर था ।
दीदी हमें रास्ते में कईबार फोन कर हमारी खबर ले चुकी थी । घर पहुचने से पहले ही रास्ते में दीदी का दुकान था । हमारे आने की भनक दुकान में दीदी की बहु को भी लग चुका था । दीपक ने गाडी दुकान के पास ही खडा कर दिया था । बहु के साथ हमारी यह पहली मुलाकात थी । फिर वहाँ से चलने के बाद कुछ ही मिनेटों में हम दिदी के घर पहुँचे । वहाँ हमें बेसब्री से इन्तजार किया जा रहा था ।
दीदी जीजाजी, भान्जे विष्णु और उनकी दो बेटियों से हमारा मिलन दिल प्रफुल्ल कर देनेवाला था ।
दीदी से शादी से पहले जीजा भीम प्रसाद से मैं असम के गुवाहाटी में कुछ समय साथ था । उन दिनाें मैं पिताजी के साथ था । वे दूध के कारोबारी थे । मैं मैट्रिक परिक्षा की तैयारी कर रहा था । वक्त ने कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया । भीम प्रसाद नेपाल लौटकर देहरादून पहुँचे । पिताजी कुछ साल बाद गौपालन और दूध का कारोवार छोडकर नेपाल चले आये । मैं तकरीबन दशसाल बाद नेपाल लौट आया था । उसके बाद कुछ साल पहले एक शादी में पोखरा में जीजासे मिला था । परन्तु दीदी के साथ मेरी बचपन की यादें ही थी । दीदी और हम एक दूसरे को देखते रह गये । मेरे बचपन के यादों में बसी दीदी को सत्तर के आसपास की दीदी के रुपमें अपडेट करने में कठिनाई महसुश हो रही थी । दीदी हम दोनाें भाईयों के सफेद बालों को देखकर अच्चम्भे में पड गई थी । मतलब वह हमारे बुढे होने को लेकर अफसोस जाहेर कर रही थी । शायद वह हम दो भाईयों में वही पुराना बचपन ढुंढ रही थी । उनको भाँपकर मैने तपाक से दीदी को कहा कि वह अभी भी खुद को युवती होने का अहशास कर रही है । इस माहौल में हम इसकदर खो गये थे कि दीपक अपने भाई पुष्कर के यहाँ जा चुके थे । इससे पहले ही मैंने गोरखा साम्राज्य के दौर में गोरखा सैनिकों और अंग्रेजों के बीच खलंगा में हुई जंग के बारे में इतिहास में कईबार पढा था और बहुत किस्से सुने थे । वहाँ जाने की इच्छा दीपक को सुनाया था । उन्होंने आखिरकार दुसरे दिन वहाँ लेजाने को तैयार होकर हमें आभार कर दिया था । तबतक हम यह सोच ही नहीं पाये थे कि दूसरे दिन भी वे हमारे साथ ही होंगे ।
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खलंगा स्मारक के द्वार पर धुंधले तस्विर में बाँय से गंगा,गिता, लक्ष्मण, दीपक, विष्णु मैं |
दूसरे दिन अपरान्ह दीपक ने फोन पर नीचे रास्ते पर आने की सुचना दी । हम चारों रास्ते तक आये । भान्जे विष्णु भी हमारे साथ जाने के लिए मोटरसाईकल पर अपनी नन्ही सी बिटिया को साथ लेकर आगे आगे निकल पडे । हमारा गन्तव्य नालापानी के खलंगा देहरादून शहर से तकरीबन ६ किलोमिटर की दूरि में जंगल के बीच पहाडी पर अवस्थित है । जहाँ पर सन् १८१५ में नेपाल और उपनिवेशवादी अंग्रेज के बीच कई जगहों चले युद्धों में से एक भयानक युद्ध लडा गया था । आधुनिक हतियार से सज्जित अंग्रेजी सेना के विरुद्ध बलभद्र कुँवर (जिन्हें भारतीय अभिलेखों में बलभद्र थापा भी कहा गया है ) की नेतृत्ववाली नेपाली सैनिक टुकडी ने इस किले से वीरता के साथ युद्ध लडा था । कई महिनों तक रुकरुक कर जंग चलता रहा । अन्त में पहाडी पर अवस्थित इस किले तक रसदपानी जाने के सभी रास्ते अंग्रेजों ने बन्द कर दिये । अंग्रेजों ने बडी सेना को इकट्ठा कर किले पर भिषण चढाई कर दिया । किले में बचे भुखी प्यासी चन्द सेना और औरतों, बच्चों और सामान्य लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ वीरता से सामना किया पर वे किले को बचा नहीं पाये । तोपों से किला पुरी तरह ढह चुका था । आखिरकार बलभद्र और बचे उनके लोग किला छोड कर पहाडियों से निकल पडे । इस युद्ध में अंग्रेजों को भी भारी नोक्सानी उठानी पडी । अंग्रेजी सेना के अनुभवी जनरल जिलेप्सी लगायत सैकडों जवानाें की जानें गयी । युद्ध के पहले दौर में अंग्रेजों की करारी हार के बावजूद भी अंग्रेजों ने बारबार अपनी सैन्य ताकत को बढाकर किले को फतह किया था ।
नेपालियों नें दक्षिण एशिया के लगभग समूचे भूभाग पर प्रभाव कायम कर चुके अंग्रेजी उपनिवेशवादी ताकत को देश के कुछ हिस्से को गवाँ कर भी अपने मुख्य हिस्से पर घुसने नहीं दिया । मैं उस इतिहास को स्मरण करते हुये भावुक हो गया था । भारी जंगलों से भरे इस पहाडी पर बना एक वीरता स्तम्भ के नीचे बैठकर तोप गोलों की आवाज योद्धाओं की दहाड और घायलों की चित्कार को महसुस कर रहा था । वहाँ आसपास बिखरे पत्थरों के अलावा फिलहाल किले का कोई अवशेष दिखाई नहीं देता है । किलेवाली जगह से आगे की ओर नीचे की जमीन बिल्कुल ही ढलाइवाली है । किले की पिछेवाली जमीन पहाडियों जुडी हुई है । यह देख कर अनुमान लगाना आसान हो जाता है कि किले पर रसदपानी इस ओर ही पहुँचाई जाती होगी । इन सब बातों पर बारीकी से जान पाना इसबार मेरे लिए संभव नहीं था । कुछ देर वहाँ रुकने के बाद खलंगा किले से हम वापस लौट आये ।
खलंगा की पहाडी से नीचे उतरने हुये मैने दीपक से पुछा– नेपाली सेना की वीरता की प्रसंसा में अंग्रेजों ने एक स्तम्भ पर लिख छोडा था, वह तो कही नही दिखाई दिया ? उन्होंने मुस्कुराते कहा – हाँ हम अब वहीं जा रहे हैं । उनके जवाफ से मैं आश्वस्त हो गया । कुछ ही समय में पहाडी से उतरने के बाद हम एक रास्ते के किनारे समतल जगह पर पहुँचे । वहाँ रिस्पाना नदी किनारे छोटा सा एक सुन्दर “खलंगा युद्ध स्मृती पार्क” बना हुवा था । यहाँ पर हमें युद्ध में मारे गये अंग्रेज जनरल जिलेप्सी की श्रद्धांजली स्तम्भ के पास ही अंग्रेजों का अपने प्रतिद्वन्दी खलंगा किले के रक्षार्थ अपनी टुकडी को लेकर तैनात गोरखा कमाण्डर बलभद्र के प्रति वीरता का सम्मान स्तम्भ को भी देखने को मिला । बलभद्र और उस युद्ध में वीरगति को प्राप्त योद्धाओं के प्रति अगाध श्रद्धान्जली के भाव मन की गहराई में अनुभव हो रहे थे । स्तम्भ में बलभद्र के बारे में लिखा कि वे शिख महाराज रणजीत सिहं के सेना में सामिल हो गये और अफगानिस्तान में लडते हुये मारे गये । इतिहास की इन साक्ष्यों का अवलोकन कर पाना हमारे लिए सौभाग्य था ।
वहाँ से निकलने के बाद भान्जी माया और उनकी बेटियों से मिलने दीपक के सैनिक आवास गये । यह भी हमारी पहली मुलाकात थी । चाय नास्ते के बाद हम दीपक को साथ लेकर देहरादून के सैनिक स्मारकों को देखते हुये शाम को दीदी के घर घट्टेखोला पहुँचे ।
दुसरे दिन शाम तक हमें रायवाला किसी भी हालत में पहुँचना था । चूंकि ऋषि भाई ने आते वक्त ही हमें हल्दी के रस्म में शामिल होने को कडे लवज में सतर्क किया था । उससे पहले हमें ऋषिकेश जाने की इच्छा थी । भोजन के पश्चात दीदी और उनके परिवार से फिर मिलने का वादा करते हुये विदा लेकर हम ऋषिकेश के लिए निकले । जीजाजी को चिन्ता थी कि यात्रा में हमें कोई परेशानी न हो । वे भी हमें ऋषिकेश के गाडी में बिठाने हमारे साथ ही आये । हम सभी पहले सप्लाई डिपो तक पहँचने के लिए पैदल ही चल रहे थे ताकि रास्ते टेम्पो मिले । स्कूटर से आती भान्जी (भान्जे विष्णु की वीवी ) मिली । भान्जी ने गंगा और गिता को सप्लाई डिपो तक छोड आयी । बाकी जीजाजी, मैं और लक्ष्मण भी दो मोटरसाईकल पर लिफ्ट लेकर सप्लाई डिपो पहुँचे । वहाँ से एक टेम्पो के जरिये हम बस अड्डे तक पहँचे । बसें अड्डे से आ और जा रहीं थी । माहौल काफी भीड भरा था । रास्ते में ट्याक्सी ट्याम्पो जीपें लगी हुई थीं । जीजाजी ने ऋषिकेश के लिए एक जीप का बन्दोबस्त किया और उनके प्रति आभार प्रकट करते हुये हम विदा हो गये । रास्ते में हम दीदी के परिवार की सभी सदस्यों की चरचा करते हुये आगे बढे ।
हरीभरी पहाडियाँ, मनोरम वातावरण नेपाल के सदृश्य ही था । कुछ घंंटों में ही हम ऋषिकेश में गंगा नदी के किनारे उतर चुके थे ।
ऋषिकेश की मनोरम वादियों ने देखते ही मोह लिया था । धार्मीक श्रद्धा से उत्प्रेरित श्रद्धालुओं की भीड को उमडते हुये देखा गया । नदी के दोनों किनारे आश्रम मठ मन्दिरों को देखते हुये हम ने करिब साढे दो घंटे बिताये । मन तो था कि यहाँ के वातावरण और अधिक समय बिताया जाये । समय की पाबन्दी के चलते ऐसा नहीं हो सका । ऋषि के बेटे की मेहंदी रस्म आज ही था और हमें समय पर ही रायवाला पहुँचना था । नये होने के कारण हम कुछ अन्यौल में भी थे । इसलिए एक बस के जरिये समय पर ही रायवाला पहुँच गये । शादीवाले घर में चारों ओर रौनक था । रोशनी से घर को सजाया जा चुका था । ऋषि, भवानी, दो बेटों और बडी बहु कृतिका व्यवस्थापन में व्यस्त थे । आज मेंहदी का रस्म हो रहा था । रायवाला में रिश्तेदारों की भी कोइ कमी नहीं थी । सभी काम में व्यस्त दिखाई दे रहे थे ।
दुसरे दिन सुबह से ही तैयारियाँ चलती रही और शाम को बारात निकली । दूल्हा सर पे पगडी बाँधे एक सुसाज्जित रथ पर सवार था । घोडा इस रथ को खिंच रहा था । बारात में बैण्ड बाजे बज रहे थे । हर बाराती नाचता थिरकता हुआ आगे हौले से आगे बढ रहा था । पास के एक पार्टीप्यालेस में बारातियों को दावत और शादी के प्रारम्भिक रस्मों को सम्पन्न किया गया । उसके बाद बाँकी रस्मों सम्पन्न करने के लिए सम्बन्धित सभी को वधू के घर ले जाया गया । वधू निलम के पिता भारत के ही असम राज्य से आकर यहाँ बस गये थे । बारातियों को असमिया गामोछा देकर स्वागत किया गया तो मुझ में उत्सुकता हुई और पुछताछ के बाद मुझे इस बात की जानकारी मिली । असम में अतिथियों को इसी तरह के गामोंछा और ताम्बूल पान से सत्कार करने का प्रचलन है । असम से शादी में आये वधू के एक रिश्तेदार से भी मेरी बातचित हुई । वे कह रहे थे कि यहाँ की शादी में खरचा ज्यादा ही किया जाता है परन्तु असम में इससे बहुत कम खरचे में ही आम शादियाँ सम्पन्न किया जाती है । शादी की प्रकृया रात भर चलती रही । नेपाल के पहाडी समुदाय में भी पहले इसी तरह पुरे रात की शादियाँ होती थी । अब यह बदल चुका है । सुबह बारात जाती है और रात तक दुल्हन को लेकर लौटने का प्रचलन इनदिनों जोरों पर है । कुछ साल पहले नेपाल के तकरीबन सभी बडे शहरों शादियों मेेंं बैण्ड बाजों का भी प्रचलन था पर अब पारम्परिक नौमती बाजों का प्रचलन है । इन बाजों को पहले सिर्फ नीचले जाती के दमाई ही बजाते थे । आजकल अन्य ऊची समुदाय के पुरुष और महिलाएँ भी शादी में पेशेवर रुपमें नौमती बाजे बजाने लगे हैं । परन्तु नेपाल के तराई में अब भी बैण्ड बाजों का प्रचलन है । सुबह दुल्हन को गाडी से घर लाया गया । घर में सभी लोग शामिल थे । मुँह दिखाई का रस्म घण्टों तक चलता रहा । ऋषि भाई और भवानी के चेहरे पर संतोष के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था । दुल्हन को घर लाकर अभिभावको का खुश होना लाजिमी था । आज भी फिर दावत का आयोजन होना था । हमारे घर से निकले हुये भी सप्ताह से अधिक हो चुका था । गंगा और गिता दोनों बहने आज ही घर लौटने की जीद करने लगी थी । ऋषि भाई कल हमें विदा करना चाहते थे । अन्तत हम आज ही विदा लेकर ढेर सारी यादों को दिल में लेकर हरिद्वार के लिए निकल पडे । घुमना, जानना, मुलाकात करना तो बहुत कुछ था पर समय के पाबन्द के कारण कुछ अधुरा सा लग रहा था । परन्तु जितना हो सका था सब कम आनन्ददायक नहीं था ।
गिता गंगा लक्ष्मण तीनों की जिद अयोध्या होते हुये नेपाल लौटने की थी । क्योंकि वहाँ राम मन्दिर बनने और प्राणप्रतिष्ठ होने के बाद आयोध्या को लेकर चारों ओर काफी चरचाएँ हो रही थी । प्रचार को देखकर लगता था अयोध्या न केवल धार्मीक वल्कि भारतीय राजनीति का केन्द्र भी बन गया था । लाखों लोगों की भीड का जमावडा हो रहा था । प्रशासन को सामान्य स्थिति बनाए रखने के लिए काफी प्रयास करना पड रहा था । इसलिए मुझे वहाँ जाने की इच्छा नहीं थी । अन्तत हम ने जाने का निश्चय किया । हमें रात दश बजे टे«न पकडना था । अभी दिन के तकरीबन दो बजे थे । बचे समय में हम पतंजली देखने गये । वहाँ पहुँचनें के लिए रेल्वे टिकट एजेन्ट ने हमें अपनी गाडी से हमें लिफ्ट दे दी थी । वैसे पतन्जली भारी भरकम संरचनाओं से भरा पडा था । हर कृयाकलापों को व्यापारिकता के साथ जोडा गया था । पूर्वीैय पारम्परिक चिकित्सा पद्धति में यह एक आधुनिक प्रयोग था । इतना ही नहीं अन्य कई अत्यावश्यकीय साजो सामान की दुकानें भी हमें देखने को मिला । परन्तु लोगों की आवाजाही हमें बहुत कम देखने को मिला । गंगा जो पहले भी यहाँ आ चुकी थी, के मुताबिक पतंजली के प्रति लोगों का आकर्षण में काफी कम हो गया था । पिछले दिनों पतन्जली उत्पादों और विज्ञापनों और उसके बयानबाजी को लेकर काफी विवाद देखने को मिल रहा है । अदालत ने भी इस संस्थाना पर कईबार संज्ञान लिया है । बाबा रामदेव और बालकृष्ण को भी अपनी गलती के लिए अदालत के सामने माफी मागना पडा है ।
रात सवा ग्यारह बजे ट्रेन तकरीबन एक घंटे देर से आयी और हम सभी उस पर सवार हो गये । हमारी टिकट ही ऐसी थी कि सभी एक साथ बैठ कर पारिवारीक यात्रा का मजा नहीं ले पाये । गंगा और गिता एक ही केविन में थी और भाई लक्ष्मण पिछेवाली केविन में और मैं चार डिब्बे आगे । रेल यात्राको लेकर मैं काफी असमंजस्य में था । मैने दशियों बार विगत में रेलयात्रा की थी । उस समय मैने कुछ डरावने और कष्टकर घटनाओं को देखा और झेला था । यही कारण था कि मैं अयोध्या जाने को कतई तैयार नहीं था । बाकी तीनाें कि जिद के चलते मुझे अपने फैसले को बदलना पडा था । परन्तु भारतीय रेलवे प्रणाली में अब काफी सुधार हो चुका है । यह बात यात्रा पुरी करने के बाद महसुस हुवा ।
दुसरे दिन दोपहर को हम अयोध्या पहुँच चुके थे । स्टेशन से ही राम मन्दिर जानेवाले लोगों का सैलाब दिखाई देता था । अयोध्या केन्ट रेलवे स्टेशन आने से कई किलोमिटर पहले ही जगह जगह पर बडेबडे शामियाने दिखाई दे रहे थे । ये शामियाने दूर से समुह में आने वालों के लिए लगाये गये थे । लोगों में इतनी अफरातफरी थी कि यह कोई तीर्थ यात्रियों की सैलाब से कहीं अधिक किसी बडे नेता की चुनावी भीड प्रतित हो रहा था । चारों ओर जय श्रीराम और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जयजयकार के नारे लग रहे थे । पहले हम अपने सामानों को कही रखना चाहते थे पर इसकी सुविधा हमें कहीं नहीं मिली । मन्दिर के पास में लोगों के सामान रखने के लिए व्यवस्थित जगह बनाया गया था । वहाँ तक सामानों को लेकर जाने की तकलिफ हमें उठानी पडी । हम लामबद्ध होकर दर्शन के लिये आगे बढे । मन्दिर में अभी भी निर्माण कार्य चल रहा था । मन्दिर का स्वरुप विशाल और भव्य था । मन्दिर से निकलते निकलते शाम हो चुका था । सुरक्षा को लेकर प्रशासन सर्तक था । भीड भरे माहौल से हम उब चुके थे । क्या करें क्या न करें हम अन्यौल में थे । सहायता कक्ष और सुरक्षा कर्मी भी हमें उचित सलाह दे नहीं पा रहे थे । हमें लगा कि अब किसी तरह यहाँ से निकल कर गोरखपुर जाना ही उचित होगा । दिन ढल चुका था । गोरखपुर जाने के लिए हमें फैजाबाद जाना था । टेम्पो से फैजाबाद जाने की बातचित भी हुई । इतने में पास ही में एक गेष्ट हाउस नजर आया । मैने टेम्पो से उतर कर वहाँ पुछताछ की । वहाँ हम से काफी पुछताछ की गयी । पुलिस को हमारे हुलिया और पहचान पत्र भेजा गया । तो काफी मसक्कत के बाद हमे एक रात के लिए रहने का कमरा मिला । टेम्पो छोड कर हम उस रात अयोध्या में रहे । देर रात भी अयोध्या नगरी में लोगों की आवाजाही चल ही रही थी । मुझे लगा ऋषिकेश और हरिद्वार दर्शनार्थियों में जो आध्यात्मिक ओतप्रोत अनुभव किया जाता सकता है उस मुकाम तक पहुँचने में अयोध्या को कुछ समय और लगेगा ।
दूसरे दिन सुबह ही हम अयोध्या से फैजाबाद के लिए निकले । वहाँ से गोरखपुर होते हुये तकरीबन चार बजे नेपाल भारत शरहद पर अवस्थित सुनौली पहुँचे । हम सभी थके हुये थे और रातको बस के जरिए अपने घर पोखरा आ पहुँचे । कुल मिला कर यात्रा अविष्मरणीय और सुखद रहा ।
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