भारत में एनआरसी पर बहस- नेपाल भी प्रभावित हो सकता है
बाबुराम पौड्याल
भारत में इनदिनो जनसांखिकी और उसके स्वरुप पर अलग सिरे से जमकर बहसें चलरही है । आजादी के बाद धर्म निरपेक्षता का पथिक भारत इसबार भारतीय जनतापार्टी सत्ता में आने के बाद हिन्दु प्रधानता की ओर संक्रमित होता प्रतित होता है । उत्तरपूर्वी राज्य असम में भारतीय नागरीकों सूची National Ragister of Cetizens (NRC) तैयार की जारही है । दुसरी सूची को इसी जुलाई में प्रकाशित किया गया है । इसे भी भारतीय जनसंखिकी पर असर डालनेवाले एक और जबरजस्त मसले के रुप में देखा जारहा है । एनआरसी की पहली सूची बिते साल ३१ दिसम्बर में प्रकाशित किया गया था । इससाल के अन्त में आखिरी सूची को तैयार किया जाना है । दुसरी सूची प्रकाशित होने तक चालिस लाख से अधिक लोगों के नाम इस सूची से बाहर हो गये हैं । मतलब, ये लोग अगर आखिरी सूची के लिए भी स्वयं को भारतीय सिद्ध नहीं कर पाते हैं तो इन्हे घुसपैठिए अर्थात् गैरकानूनी विदेशी माना जायेगा । इसतरह का प्रयोग करनेवाला भारत में असम पहला राज्य है ।
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A woman showing her documents |
वैसे इस काम को अंजाम तक पहुंचाना असंभव तो नही पर आसान भी नहीं है । अबतक की सूचियों में कई खामियां भी पायी गई है । भारत के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद, असम विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति और कई स्थानिय लोगों के नाम भी सूची से बाहर हो जाना खामियों की ओर भी संकेत करता है ।
यह अभी यकिनी तौर पर कहना जल्दबाजी होगा कि चालिस लाख लोग ही असम में गैरकानुनी विदेशी हैं, फिर भी यह तय है, असम में ऐसे विदेशियाें की संख्या उल्लेखनिय है । असम में अस्सी के दशक से ही ऐसे लोगों के निष्काशन के लिए नागरिक स्तर में कई आन्दोलन किये जा चुके हैं । सन् १९८५ में केन्द्र सरकार और आन्दोलनकारी अखिल असम छात्र संघ के प्रतिनिधियों के बीच इस मसले पर दिल्ली में एक सम्झौता भी हो गया था ।
इस चालिस लाख की सूची से बाहर के लोगों में अधिकांश बांगलादेश से सन् १९७१के बाद आये या उससे पहले आकर भी स्वयं को कागजी तौर पर प्रमाणित करने में असफल लोग शामिल हैं । बांगलादेश ने इन लोगों को अपना मानने से इन्कार किया है ।
सन् १९४७ में अंग्रेजी साम्राज्य से आजादी मिलने तक वर्तमान पाकिस्तान और बांगलादेश भी भारत के ही हिस्से थे । तबतक आपसी आवाजाही गुजर बसर करने में इस तरह की कोई समस्या नहीं थी । फिर भी हिन्दुओ की आबादीवाले असम में पूर्वी बंगाल से आनेवाले मुसलमान जिनको मैमनसिंगिया कहा जाता था— के प्रति असंतोष देखने को मिलता था । यह असंतोष दो धर्म के बीच की भिन्नताओं के कारण ही था । मैमनसिंगियों पर असम में पशुपालन के लिए आरक्षित भूमि पर अतिक्रमण करने का आरोप उस समय भी लगाया जाता था । भारत—पाक विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से आनेवाले स्वभाविक रुपसे विदेशी थे । बात यही तक खत्म नहीं हो जाती, पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुररहमान के नेतृत्व में पाकिस्तान से अलग होने के लिए अलगाववादी आन्दोलन शुरु हो गया । भारत ने इस आन्दोलन को हरतरह से साथ दिया । उस दौरान बडी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से लोग शरणार्थी के रुपमें भारत के सिमावर्ती असम और अन्य सिमावर्ती राज्यों में आये या उन्हे आने के लिए प्रोत्साहित किया गया । भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ और पाकिस्तान के हार जाने के बाद सन् १९७१ म्ों पूर्वी पाकिस्तान आजाद बंगलादेश बना । तत्कालिन प्रधानमंत्री इन्दिरा गान्धी ने भी उस समय पूर्वी पाकिस्तान से युद्ध के कारण भारत में आए शरणाथिर्यों को वापस बांगलादेश जानेको कहती रही परन्तु उस पर जमिनी तौर पर काम नहीं हो सका । कितने शरणार्थी बांगलादेश लौट गये और कितने यहीं रह गये इसका आंकडा नहीं है । इसी आधार पर अब बांगलादेशियों के लिए सन् १९७१ को कुछ शर्त के साथ आधार वर्ष माना गया है ।
भारत का विभाजन हिन्दु और मुश्लिम दो धर्म के आधार पर किया गया था । हिन्दुओं के लिए हिन्दुस्तान बना और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाया गया । मुश्लिम आबादीवाले पूर्वी बंगाल को भी पाकिस्तान माना गया । मतलव, एक देश का दो भूगोल में होने के कारण पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के नाम से जाना गया ।
असम में बडी संख्या में स्वयं को भारतीय गोरखा कहनेवाले नेपाली भाषी लोग भी सूची से बाहर हो गए हैं । न्यायलय और असम सरकार ने नेपाली भाषियों को लेकर कहा है कि वे घुसपैठिये नहीं हैं । इनके प्रतिनिधियों ने दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री से अपनी फरियाद कर चुके हैं । उनके अनुशार गोरखों की इस समस्या के प्रति वे सकारात्मक हैं । इसका मतलव यह भी हो सकता है सूची से बाहर के सभी नेपाली भाषी लोग को सन् १९५० की भारत नेपाल संधि के तहत नेपाल के नागरीक मान लिया जाये और उन्हे अन्त में नेपाल का रास्ता दिखा दिया जाये ।
भले घुसपैठियों की असली पहचान के लिए एक और अन्तिम दौर का पुरा होना बांकी है, सियासी हलकों में सरगर्मियां तेज हो गई है । हर किसी राजनीतिक दल अगले साल भारत में होनेवाले चुनावों के लिए दमदार मसले के रुपमें इसे इस्तेमाल करने पर आमादा है । भारतीय जनता पार्टी राज्यों में अपनी सरकार आने पर असम की ही तरह एनआरसी को शुरु करने की बात कर रही है । बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी और अधिकांश विपक्षी दलो ने एनआरसी के खिलाफ मोरचा खोल लिया है । ममता ने तो कडे शब्दों में देश में जाती और धर्म को लेकर गृहयुद्ध की चेतावनी दे डाली है ।
राजनीतिक खिचातानी में अभी अन्तिम और जटिल परिस्थिती की ओर कोई खास गम्भिरता दिखाई नहीं दे रहा है । जिनको विदेशी मान लिया जायेगा उनका व्यवस्थापन किसतरह होगा, तस्विर साफ नहीं है । असम के कुछ नेता तात्कालिक रुपसे इन राज्यविहिन लोगों को विभिन्न राज्यों में बांट देने का सुझाव देने लगे हैं । बडी संख्या में ऐसे लोगों को शरणार्थी के तौर पर कबतक और कैसे रखा जायेगा — बात आसान नहीं है । कुछ लोग इस मसले को सिर्फ चुनावी स्टंट मानते है जिसका चुनाव के बाद दम टुटना तय है । अगर यही सच है तो भी सामाजिक तौर पर इसका बहुत बडा नकारात्मक असर पडना निश्चित है ।
इस मसले पर पूर्वोत्तर भारत में विद्यार्थी संगठनो की सक्रियता बहुत ही दवाबकारी रहा है । इस समय भी इनकी सक्रियता में ज्यादा ही वृद्धि देखी जारही है । सौरभ गोगोई ने २३ अगस्त के एशिया टाईम्स् में लिखा है— नीचले तबके के आमलोग जातिगत और समाजिक सम्बन्ध को लेकर चलनेवाली राजनीति के भुलभुलैया के चपेट में अक्सर आजाते है जिसके चलते परिणाम अमानविय स्तर तक पहुंच जाता है । इससमय यही कुछ होरहा है । अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय राज्यों में वहां की विद्यार्थी संगठनों ने रास्तों पर अराजक तरीके से विदेशियों को रोकने के नाम पर यात्रियों की तलाशी के नाम पर परेशान करना शुरु कर दिया है । वैसे सरकारें भी अपने स्तर से यह काम कररही है ।
इस हलचल में भारत के पडोसी देशों में से नेपाल पर प्रभाब पडने का ज्यादा खतरा है । भारत और नेपाल के बीच खुली सिमा के कारण इन शरणर्थियो का नेपाल की ओर चले आने की संभावना है । भूटानी शरणर्थियों को लेकर नेपाल ने विगत मे जो कुछ झेला है उसे इसबार स्मरण में रखना उसके लिए आवश्यक है । भारत ने भूटानियों को अपनी भूमि से उठाकर नेपाल की सिमा में ला पटका परन्तु उन्हे वापस जाने नहीं दिया । इसबार भी नेपाल डम्पिङ साइट न बन जाये ।
यह अभी यकिनी तौर पर कहना जल्दबाजी होगा कि चालिस लाख लोग ही असम में गैरकानुनी विदेशी हैं, फिर भी यह तय है, असम में ऐसे विदेशियाें की संख्या उल्लेखनिय है । असम में अस्सी के दशक से ही ऐसे लोगों के निष्काशन के लिए नागरिक स्तर में कई आन्दोलन किये जा चुके हैं । सन् १९८५ में केन्द्र सरकार और आन्दोलनकारी अखिल असम छात्र संघ के प्रतिनिधियों के बीच इस मसले पर दिल्ली में एक सम्झौता भी हो गया था ।
इस चालिस लाख की सूची से बाहर के लोगों में अधिकांश बांगलादेश से सन् १९७१के बाद आये या उससे पहले आकर भी स्वयं को कागजी तौर पर प्रमाणित करने में असफल लोग शामिल हैं । बांगलादेश ने इन लोगों को अपना मानने से इन्कार किया है ।
सन् १९४७ में अंग्रेजी साम्राज्य से आजादी मिलने तक वर्तमान पाकिस्तान और बांगलादेश भी भारत के ही हिस्से थे । तबतक आपसी आवाजाही गुजर बसर करने में इस तरह की कोई समस्या नहीं थी । फिर भी हिन्दुओ की आबादीवाले असम में पूर्वी बंगाल से आनेवाले मुसलमान जिनको मैमनसिंगिया कहा जाता था— के प्रति असंतोष देखने को मिलता था । यह असंतोष दो धर्म के बीच की भिन्नताओं के कारण ही था । मैमनसिंगियों पर असम में पशुपालन के लिए आरक्षित भूमि पर अतिक्रमण करने का आरोप उस समय भी लगाया जाता था । भारत—पाक विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से आनेवाले स्वभाविक रुपसे विदेशी थे । बात यही तक खत्म नहीं हो जाती, पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुररहमान के नेतृत्व में पाकिस्तान से अलग होने के लिए अलगाववादी आन्दोलन शुरु हो गया । भारत ने इस आन्दोलन को हरतरह से साथ दिया । उस दौरान बडी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से लोग शरणार्थी के रुपमें भारत के सिमावर्ती असम और अन्य सिमावर्ती राज्यों में आये या उन्हे आने के लिए प्रोत्साहित किया गया । भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ और पाकिस्तान के हार जाने के बाद सन् १९७१ म्ों पूर्वी पाकिस्तान आजाद बंगलादेश बना । तत्कालिन प्रधानमंत्री इन्दिरा गान्धी ने भी उस समय पूर्वी पाकिस्तान से युद्ध के कारण भारत में आए शरणाथिर्यों को वापस बांगलादेश जानेको कहती रही परन्तु उस पर जमिनी तौर पर काम नहीं हो सका । कितने शरणार्थी बांगलादेश लौट गये और कितने यहीं रह गये इसका आंकडा नहीं है । इसी आधार पर अब बांगलादेशियों के लिए सन् १९७१ को कुछ शर्त के साथ आधार वर्ष माना गया है ।
भारत का विभाजन हिन्दु और मुश्लिम दो धर्म के आधार पर किया गया था । हिन्दुओं के लिए हिन्दुस्तान बना और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाया गया । मुश्लिम आबादीवाले पूर्वी बंगाल को भी पाकिस्तान माना गया । मतलव, एक देश का दो भूगोल में होने के कारण पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के नाम से जाना गया ।
असम में बडी संख्या में स्वयं को भारतीय गोरखा कहनेवाले नेपाली भाषी लोग भी सूची से बाहर हो गए हैं । न्यायलय और असम सरकार ने नेपाली भाषियों को लेकर कहा है कि वे घुसपैठिये नहीं हैं । इनके प्रतिनिधियों ने दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री से अपनी फरियाद कर चुके हैं । उनके अनुशार गोरखों की इस समस्या के प्रति वे सकारात्मक हैं । इसका मतलव यह भी हो सकता है सूची से बाहर के सभी नेपाली भाषी लोग को सन् १९५० की भारत नेपाल संधि के तहत नेपाल के नागरीक मान लिया जाये और उन्हे अन्त में नेपाल का रास्ता दिखा दिया जाये ।
भले घुसपैठियों की असली पहचान के लिए एक और अन्तिम दौर का पुरा होना बांकी है, सियासी हलकों में सरगर्मियां तेज हो गई है । हर किसी राजनीतिक दल अगले साल भारत में होनेवाले चुनावों के लिए दमदार मसले के रुपमें इसे इस्तेमाल करने पर आमादा है । भारतीय जनता पार्टी राज्यों में अपनी सरकार आने पर असम की ही तरह एनआरसी को शुरु करने की बात कर रही है । बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी और अधिकांश विपक्षी दलो ने एनआरसी के खिलाफ मोरचा खोल लिया है । ममता ने तो कडे शब्दों में देश में जाती और धर्म को लेकर गृहयुद्ध की चेतावनी दे डाली है ।
राजनीतिक खिचातानी में अभी अन्तिम और जटिल परिस्थिती की ओर कोई खास गम्भिरता दिखाई नहीं दे रहा है । जिनको विदेशी मान लिया जायेगा उनका व्यवस्थापन किसतरह होगा, तस्विर साफ नहीं है । असम के कुछ नेता तात्कालिक रुपसे इन राज्यविहिन लोगों को विभिन्न राज्यों में बांट देने का सुझाव देने लगे हैं । बडी संख्या में ऐसे लोगों को शरणार्थी के तौर पर कबतक और कैसे रखा जायेगा — बात आसान नहीं है । कुछ लोग इस मसले को सिर्फ चुनावी स्टंट मानते है जिसका चुनाव के बाद दम टुटना तय है । अगर यही सच है तो भी सामाजिक तौर पर इसका बहुत बडा नकारात्मक असर पडना निश्चित है ।
इस मसले पर पूर्वोत्तर भारत में विद्यार्थी संगठनो की सक्रियता बहुत ही दवाबकारी रहा है । इस समय भी इनकी सक्रियता में ज्यादा ही वृद्धि देखी जारही है । सौरभ गोगोई ने २३ अगस्त के एशिया टाईम्स् में लिखा है— नीचले तबके के आमलोग जातिगत और समाजिक सम्बन्ध को लेकर चलनेवाली राजनीति के भुलभुलैया के चपेट में अक्सर आजाते है जिसके चलते परिणाम अमानविय स्तर तक पहुंच जाता है । इससमय यही कुछ होरहा है । अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय राज्यों में वहां की विद्यार्थी संगठनों ने रास्तों पर अराजक तरीके से विदेशियों को रोकने के नाम पर यात्रियों की तलाशी के नाम पर परेशान करना शुरु कर दिया है । वैसे सरकारें भी अपने स्तर से यह काम कररही है ।
इस हलचल में भारत के पडोसी देशों में से नेपाल पर प्रभाब पडने का ज्यादा खतरा है । भारत और नेपाल के बीच खुली सिमा के कारण इन शरणर्थियो का नेपाल की ओर चले आने की संभावना है । भूटानी शरणर्थियों को लेकर नेपाल ने विगत मे जो कुछ झेला है उसे इसबार स्मरण में रखना उसके लिए आवश्यक है । भारत ने भूटानियों को अपनी भूमि से उठाकर नेपाल की सिमा में ला पटका परन्तु उन्हे वापस जाने नहीं दिया । इसबार भी नेपाल डम्पिङ साइट न बन जाये ।
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