दस्तक : नारी तुम कहां हो ?
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बाबुराम पौड्याल |
इससे पहले अक्सर सोचा जाता था कि इसतरह की हिंसाओं से निजात पाने के लिए महिलाओं का सशक्तिकरण ही प्रभावकारी होगा, परन्तु ए्ेसा नहीं होरहा है । जहांजहां महिलाओं की उपस्थिती रहती है वहां हिंसा की संभावना बनी रहती है । वह जिसकिसी भी हैसियत में हो खतरे से खाली नहीं है । उसे पुरुषों की अपेक्षा हरक्षण संकुचित और सतर्क रहना पडता है । इसीलिए यह प्रमाणित हो गया है कि लैंगिक हिंसा को अकेले नारी सशक्तिकरण से रोका नहीं जा सकता है । संभवतः सशिक्तकरण राजनीतिक इच्छाशक्ति से पाया जा सकता है परन्तु लैंगिक हिंसा से मुक्ति नहीं । इसकेलिए सामाजिक औेर सांस्कृतिक सचेतनता भी आवश्यक है ।
निर्मला बलात्कार और हत्याकांड के आसपास और भी कई इसीतरह की दिल दहला देनेवाली वारदातें लगातार घटित हो रही हैं । निर्मलाको लेकर तो न्याय के लिए स्वयं आमलोगों को सडक पर दबाव के लिए आना पड । जैसे भारत में कुछसाल पहले निर्भया के मामले मे हुवा था । निर्मला के मामले में जनता की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार प्रहरी संयन्त्र पर उसके अन्दर के ही कुछ नाकाबील पुलिसकर्मियों के चलते अविश्वास का माहौल पैदा हो गया है । कंचनपुर से काठमाण्डौ और सारे देश में लोगों में आशंका और आक्रोश एक साथ है । जिसका सिधा असर पुलिस और सरकार पर भी पडा है । मतलब, भरोसे पर सवाल खडे हो गये हैं । यह नेपाली समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है ।
नारी पर होनेवाली हिंसाएं सिर्फ इसी समय में आकर प्रकट हो गई है— ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । ऐसी कलियो का मसलना हजारों सालों से लगातार जारी है । निर्मला और निर्भया लाखोंबार हवस और कु्ररता के हत्थे बलि चढती आई है । फर्क सिर्फ इतना है कि मानव सभ्यता के कई दौर में इसतरह की हिंसाओं के प्रति लोगों की नजरिये में समानता नही थी । इस मामले में, हमारा समाज संवेदनशील, समानतावादी और ओर प्रगतिशील होने का नाटक तो अब्बल दरजे का करता नजर आता है परन्तु उसके इमानदारी पर विश्वास नहीं है । हमारे समाज में तरह तरह के कहावतें प्रचलित हैं, जिनका उपयोग महिलाओं को नीचा दिखाने के लिए किया जाता है । यह समाज की सोचों को दरशाता है ।
बिते सदी की फ्रंसीसी नारीवादी विदुषी सिमोन द बोउवार के अनुशार बेटियोंको जन्म के बाद ही सामाजिक मूल्यों में तरासकर नारी बनाया जाता है और इस चक्र से उभरने के लिए नारी को स्वयं ही आगे आना होगा । उनके इस तर्क ने नारीवाद को सशक्त बनने में जरुर मदत मिली है । भारत की एक नारीवादी अभियान्ता कमला भसिन ने पिछले दिनो काठमाण्डौ में आकर कहा कि क्या नारी की इज्जत उसकी लैगिक चिन्ह पर ही होती है ? परन्तु यहां पर सवाल उनके तर्कों का खण्डन व मण्डन का नहीं है । वल्कि नारी पर होरहे लैगिक हिंसा का डरावने रुपको लेकर तरस खाने का है । जिसमें कोई असत्यता नहीं है । यह हरसमय और देशदुनिया का यथार्थ है ।
पुराणों और इतिहास में भले ही कुछेक नारियों को कुछ जगहों पर उंmचा दरजा दिया गया है, परन्तु उसके पिछे की परिवेश में टटोलें तो लगता है कि लैंगिक हिंसाओं से वे महान नारी भी मुक्त नहीं थी । इन शास्त्रों में जो अच्छाई भी है उसको ठिक से शायद समझा नहीं गया । इसी के चलते उन विकृतियो को भी हमारे विरासत में शामिल होने के लिए फाटक खुल गया । इसपर कहां किस की चुक हो गई — समझने की बात है । वेदों, बाईबल और कुरान जैसे ग्रन्थ भी इस बद्बु से कई जगह मुक्त नहीं दिखाई देते । इन ग्रन्थों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की अवस्थिती को बिल्कुल नाजुक करार दिया गया है और उस नजाकत को सुन्दरता के नाम से मण्डित करदिया गया है । लगता है इस सुन्दरता का प्रभावकारी उपभोक्ता सिर्फ पुरुष है । ऐसे में नारी एक सामान बनकर रहजाती है ।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम सिता को न्याय नहीं दे सकते हैं कि सिता नारी और उनकी पत्नि है । महाभारत की द्रौपदी का भारी सभा के बीच चिरहरण का प्रयास हुआ लेकिन भिष्म जैसे बुजु्रग लोग नमक के बोझतले मौन रहे । मतलव, न्याय और करुणा का स्थान नमक से बहुत नीचे था— उस समय । बाईबल और कुरआन तो बताते हैं कि उनकी आदिमाता हब्बा को पुरुष आदम के शरीर के किसी हिस्से को निकालकर बनाया गया है । इसिलिए हब्बा का दरजा उत्पत्ती से ही दुसरे नम्बर का है । शैतान के जरिये के रुपमें में वह उपयोग हो जाती है— नतिजा यह मान लिया गया हेै कि मानव आज तक दुखी है । बुद्ध तो नारी को अपने संघ के अन्दर प्रवेश तक नहीं देना चाहते थे । उनकी माता प्रजापति गौतमी और पत्नि यशोधरा के काफी प्रयास के बाद स्त्रियों को भिक्षुणी के रुपमें संघ में प्रवेश दिया गया परन्तु उनको पुरुष भिक्षुओं के बाद का ही दरजा मिला ।
मध्यकाल में मुसलमानो के अत्याचार से बचने के लिए क्यो नारियों को सिर्फ जौहर का रास्ता दिखाया गया ? हमारे चिन्तन के इन्ही तमाम स्रोतों का संवाहन समकाल में भी हम स्वयं भी कररहे हैं । बस नारी पिसती ही चली आरही है । सतिप्रथा जैसे विकृत परम्पराको हम ढोये चलेआरहे थे । भारत में इस परम्पराको तोडने के लिए अंग्रेजी उपनिवेशवाद का एक सख्श विलियम बैटिकको और नेपाल में निरंकुश राणाशाहीका एक शासक चन्द्र समसेर को आगे आना पडा । उनके इस कदम को दबे या खुले जुबान से नकारने प्रयास भी किया गया था । क्या जम्बुदीप में ज्ञान और मानवियता का शौर्य का अस्त हो चुका था ?
हमारे इस इक्किसवीं सदी में अपने घर के चौखट के अन्दर भी नारी सुरक्षित नहीं है । और तो और मां के गर्भ में भी बद्नीयती की वह शिकार हो रही है । पिछले दिनों एक मित्र ने बडे भावपूर्ण शब्दों में कहा कि यार मुझे अपनी नन्ही सी बच्ची का चेहरा देखते ही डर लगने लगा है । मैं उससे आगे के शब्द सुनना ही नहीं चाहता था, जाहिर है, आगे के शब्द और भी कडवे यथार्थ को उजागर करनेवाले थे । इसलिए कि वह आगे कोई खोैफनाक बात कह न दे । मैं उठ के चल पडा ।
सडकों में नारे लगानेवाले कहते है— बलात्कारी को फंसी दो । उस भीड में अकेली नारियां नही होती हर उम्र के पुरुष भी चिल्लाते दिखाई देते हैं । अपराध करना, सजा देना और पाना बाहर की बात है अन्तरात्मा की नहीं । जब तक अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होता यह सब चलता ही रहेगा । इन नारों के पिछे चलनेवाले भी उनके बेटे द्वारा किसी लडकी पर बद्सलुकी किए जाने पर क्या करेगें ? सोचने की बात है । कितने जुलुस में नारे लगानेवाले पुरुष अपने घर से बाहर तक रोजमर्रा में कितनी महिलाओं पर हिंसा थोपते हैं, जरा गौर से देखिए और सोचिए— तस्विर साफ हो जायेगा ।
स्वयं को नारीवादी कहनेवाले लोग अक्सर पुरुष और नारी को दो अलग सत्ता के रुपमें चित्रित करते हैं । यह एक प्राकृतिक सत्ता है जिस में ये दोनों पुरक जरुर हैं । दोनों में एक को अलग करने उस सत्ता में कभी संपूर्णता नहीं आ सकती । नारी और पुरुष प्रतिद्वन्दी नहीं हैं । इनके बीचका बिग्रह मानव जाति को ही समाप्त कर देगा । शायद नारीवाद भी इस भयावह तस्विर की ओर आंख नहीं मुद पायेगा । इसका मतलब यह नहीं कि नारी पर हो रहे तरह तरह की हिंसाओं पर अंकुश नहीं लगाना चाहिए । यह तो धार्मिक,सांस्कृतिक, सामाजिक समस्या भी है । जिस पर काबु पाना आवश्यक है ।
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