क्या हो रहा है असम राज्य में प्रवासी घरवासी नेपालियों पर ?
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बाबुराम पौड्याल |
पिछले जून में एनआरसी से चालिस लाख लोग बाहर हो गये हैं । पीढियों से गुजरबसर करते आरहे ऐसे लोगों में दहशत का माहौल बराकरार है । दहशत इस मायने में भी है कि विगत में कईबार असम और अन्य पूर्वोत्तरी राज्यों के अनेक जगहों पर साठ सत्तर और अस्सी के दशक में बंगालियों औेर अस्सी और नब्बे के दशक में नेपालियों को गैरकानुनी विदेशियों के आरोप मेें सरकार और साम्प्रदायिक दमन का शिकार होना पडा है । यह कभी उग्रजातिवाद, कभी धार्मिक और भाषिक साम्प्रदायिकता का रुप भी धारण करते हुये समय समय पर पपुलिष्ट चोले मे प्रकट होता रहा । सन् १९७१—८९ में असम और मेघालय में विषेश कर इन दो जातियो के खिलाफ प्रकट हुआ था । बंगलादेशियों के नाम पर भारत के ही बंगालियों पर और नेपालियों के नाम पर भारत के ही नागरिकों पर घोर अत्याचार होता रहा ।
सन् १९४८ में भारत से पाकिस्तान अलग हो जाने के बाद पूर्वीपाकिस्तान (हाल बांगलादेश) और भारत बीच की शरहद को स्वभाविक रुपसे बन्द कर दिया गया । एक दुसरे देशों प्रवेश के लिए भीजा और पासपोर्ट आवश्यक हो गया । सन् १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान स्वतन्त्र बांगलादेश बना । उसके बाद वहां से भारत प्रवेश करनेवाले लोगों को पहले शरणार्थी और बाद में गैरकानुनी विदेशी माना जाने लगा ।
केन्द्र सरकार ने सन् १९७६, जुलाई ३० तारीखको एक अधिसूचना जारी करते हुये नेपालियो को भारत के अन्य कुछ क्षेत्रों के साथ पुर्वोत्तर भारत में प्रवेश के लिए पारमिट आवश्यक कर दिया था । नेपालियों की आवादीवाले इस क्षेत्र में अचानक परमीट आवश्यक हो जाने से लोगों में अन्योलता की स्थिती उत्पन्न हो गया था । काफी दिक्कतों का सामना करना पडा । उसके बाद पहले असम और बाद में मेघालय और अन्य पूर्वोत्तरी राज्यों में नेपालियों पर अवैध विदेशियों के आरोप में भारी प्रशासनिक दमन किया गया । गैरकानुनी विदेशी के नाम पर किये गये अत्याचार से नेपालीभाषी भारतीय नागरिकों को भी बख्सा नहीं गया । इसी दौरान असम में विदेशियों को बाहर करने के लिए छात्रों ने आन्दोलन किया । आन्दोलन को सम्बोधन के नाम पर सरकार ने नेपालिभाषियों पर जो दमन किया उससे यही साफ दिखाई देता था कि भारत सरकार भारत में रहरहे नेपाल के नागरीक और बांगलादेशी नागरिकों को समान दृष्टि से देखने नीति अनुशरण कर रही है ।
असम के श्रीरामपुर, बक्सिरहाट और मेघालय के बर्नीहाट जवाई तकं रास्तों पर चेकपोष्ट बनाकर दैनिक सैकडों नेपालियों को सताया गया । शिलाङ और गुवाहाटी के बस रेलस्टेशनों पर नेपालियों को भारी संख्या में पकडा जाना रोजमर्रा बन गया । आसाम का छात्र आन्दोलन सन् १९८४ में केन्द्र सरकार और छात्रसंघ के बीच हुये सम्झौते से थम गया । उसके दो साल भी बिते नहीं थे कि मेघालय के जयन्तिया पहाड में सरकारी दमन का पहाड नेपालियों पर टुट पडा । बर्नीहाट, शिलङ, जवाई जैसे स्थानों में नेपालियों पर सरकारी अत्याचार किये गए । जयन्तिया पहाड जिले में कोयला खदानों से बडे संख्या में नेपाली मजदूरों को गैरकानुनी विदेशी के नाम पर गिरफ्तार किया गया । इनमें से कईयों को जवाई और शिलांङ की जेलों में डाल दिया गया और बहुतों को आसाम के सिमा क्षेत्र में लाकर असम की ओर जाने के लिए छोड दिया गया । टेलिग्राफ नामक अखबार ने इस सरकारी रवैये को “जंगल राज”का नाम दिया था । कुछ हिन्दु संगठनों ने मेघालय से नेपालियों के निष्काशन को हिन्दु विरोधी तक कहा ।
दमन से नेपाल में आप्रवासन की समस्या बढने की संभावना को देखते हुये नेपाल ने भारतियों को नेपाल में काम करने के लिए राजधानी काठमाण्डौ घाटी के तीन जिलों में श्रम अनुमति पत्र आवश्यक कर दिया । यह भारत के पूर्वोत्तरी राज्यों से सभी नेपाली भाषियों को निकाल बाहर किये जाने के विरोध में नेपाल द्वारा उठाया गया कदम था । जिस को सन् १९८९, मई ११ तारीख को भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने सन् १९५० की सन्धि का उल्लंघन बताते हुये विरोध किया ।
जाहिर है, पूर्वोत्तर भारत के वर्तमान के असम,मेघालय, मणीपुर में अंग्रेजों के जमाने से ही नेपालियों की उल्लेखनिय उपस्थिती रही है । रेललाईन की पटरी बिछाने, उपरी असम में खनीज तेल और कोयला खनन और रास्ते बनाने के लिए अंग्रेजों ने नेपालियों को यहां आने के लिए प्रोत्साहित किया । गोरखा युवकों को भारी मात्रा में फौज में भर्ती कर इस क्षेत्र में लाया गया । इसका मतलव यह नहीं कि अंग्रेजों से पहले इस क्षेत्र के साथ नेपालियों का कोई सम्बन्ध नहीं था बल्कि पौराणिक काल से ही वर्तमान नेपाली भूभाग से यहां लोगाें का आनाजाना ही नही राज्यों के बीच औपचारिक सम्बन्ध भी थे ।
एशिया टाइम्स अखबार के मुताबिक जुन ३० तारीख को प्रकाशित खबरों में कहा गया है कि एनआरसी में तकरीबन पच्चिस लाख में से एकलाख भारतीय गोरखों अर्थात् नेपालियों के नाम नहीं है । एनआरसी से बाहर हुये ऐसे लोगों को विदेशी पहचान के लिए गठित न्यायलय ँयचभष्नलभच त्चष्दगलब िसे फैसला होने तक बन्दी केन्द्र(म्भतभलतष्यल ऋभलतचभ) में रखा जाना है । भारतीय निर्वाचन आयोग ने भी मतदाता सूची में संलग्न कुछ नेपाली नागरिकों के मसले को विदेशी पहचान के लिए गठित न्यायलय को भेज दिया है । इस पर गृह मंत्रालय का कहना है जनप्रतिनिधि कानुन १९५१ के मुताबिक अकेले भारतीय नागरीक ही मतदाता हो सकते हैं, विदेशी नहीं । नेपाली, जो भारतीय संविधान के जारी होने से पूर्व ही भारतीय नागरिक था, जो जन्म से ही भारतीय नागरीक है और जिन नेपालियों ने भारतीय नागरीकता कानुन १९५५ को अनशरण करते हुये भारतीय नागरीक बनने की प्रक्रिया को पुरा किया हैैं — भारतीय नागरीक हैं ।
यह साफ है कि समूचे भारत में राजनीतिक हिसाव से दो तरह के नेपालीभाषी लोग रहते आएं है, जिनको गोरखा व नेपाली के नाम से जानाजाता है । एकतरह के वो लोग हैं जो भारतीय नागरिक हैं तो दूसरे सन १९५० में नेपाल और भारत के बीच सम्पन्न शान्ति और मैत्री संधी के प्रावधान के कारण भारत में रहरहे नेपाल के नागरीक हैं । ऐसा नहीं है कि भारत नेपाल सिमा इस सन्धि के कारण ही खोल दिया गया है । यह परापूर्वकाल से ही खुला था जिसको बन्द करने की आवश्यकता अंग्रेजो ने भी महसुस नहीं की । इसी विरासत को बदलते समय में नेपाल और अजाद भारत ने सन् १९५० की सन्धी में हस्ताक्षर करते हुये वैधानिकता दिया । नेपाल में इस सन्धि के प्रति अविश्वास देखने को मिलता है । अपने अन्तिम समय में राणा प्रधानमंत्री मोहन सम्सेर ने भारत के साथ यह सन्धि की थी । संन्धि पर नेपाल की ओर से स्वयं प्रधानमंत्री और भारत की ओर से काठमाण्डौ स्थित भारतीय राजदुत के हस्ताक्षर हैं ।ं यह सन्धि दोनों देश के नागरिक एक दुसरे देश मे आने जाने और गुजरबसर करने की इजाजत देता है । इस हिसाब से नेपालियों को एनआरसी के चपेट से अलग रखना ही न्यायोचित है ।
पछिले दिनों असम के नेपालीभाषी प्रतिनिधियों द्वारा इस समस्या को लेकर गुवाहाटी से दिल्ली तक कई दौर की वार्ताओं को अंजाम देने के बाद हालातों में कुछ फर्क महसुस किया गया है । अक्टोबर १० तारिख को केन्द्रिय गृहमंत्रालय ने असम सरकार को एक परिपत्र भेजकर, नेपालियों अर्थात् गोरखों को विदेशी पहचान के लिए गठित न्यायलय के समक्ष प्रस्तुत होने और अनुसन्धान के लिए बन्दी केन्द्र में रखने की आवश्यकता से साफ इन्कार किया है । इसे सकारात्मक समाचार माना जा सकता है । इस निर्देशन के बाद अब एनआरसी का मोहरा पुरी तौर से बंगलादेश से आए लागों की ओर लक्षित दिखाई देता है । उनमें भी भारत का रुख विषेशकर बांगलादेश से आए हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों के प्रति कठोर प्रतित होता है । भारत, कुछ पडोसी देशों के अल्पसंख्यक हिंन्दुओं के प्रति उदार है । एक नये कानुनी प्रावधान के अनुशार सन् २०१४ तक बांगलादेश, पाकिस्तान, और अफगानिस्तान से आए धार्मिक अल्पसंख्यक हिन्दुओं को भारत में शरण देने का प्रावधान भी है । इसका लाभ बांगलादेश से आये हिन्दूओं को मिल सकता है । केन्द्र सरकार के निर्देशन के बाद असम में नेपाली भाषी आमलोगों को प्रशासनिक दमन से राहत मिलने की संभावना है ।
निर्देशन में असम में रहरहे नेपाल के नागरीकों की स्थिती को स्पष्ट करने की कोशिस की गर्इृ है । नेपाल से किसी भी माध्यम से जिस किसी समय में बगैर विजा पासपोर्ट के आकर बसे लोगों को गैरकानुनी विदेशी नहीं माना जायेगा । उनके पास नेपाली नागरीकता, नेपाली निर्वाचन आयोग का परिचय पत्र और दिल्ली स्थित नेपाली दूतावास प्रदत्त पत्रों को आधिकारिक माना जायेगा ।
असम में नेपालियों का एक तबका भी है जो पीढियों से रहते हुये भी कागजी रुपसे स्वयं को भारतीय सिद्ध नहीं कर सकता और ना ही उसके नेपाल के साथ कोई सम्बन्ध है । ऐसे लोगों के लिए राज्यविहिन होने का खतरा है । ये लोग आसाम में बस तो पायेंगे पर राजनीतिक अधिकार उपयोग करने से बंचित हो जायेंगे और सरकारी कल्याणकारी योजनाओ को उपयोग नहीं कर पाऐंगे । यह एक बडी समस्या हो सकती है । इन लागों को नेपाल भी अगर स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि भूटानियों के मामले ने नेपालको सीख दिया है । उधर बंगलादेश भी एनआरसी से बाहर के बंगालियों को स्वीकार नहीं करता है तो समस्या से निजात कैसे किया जा सकेगा ?
बाबुराम पौड्याल
Neapalis in Assam are still in confusion.
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