नेपाल फिर से हिन्दुराष्ट्र बनेगा ?

                                                                                                                                                   
 बताया जाता  है, भारत  उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसबार विवाह पंचमी के अवसर पर हिन्दुओं के आराध्य श्रीराम की बारात में माता सिता की नगरी जनकपुर आने की योजना बना रहे हैं । यहां आकर वे भारत द्वारा निर्मित रेल्वे का उदघाटन करेंगे । परन्तु इस बात की आधिकारिक  पुष्टि अभी नहीं हो पायी है . अगर योगी नहीं भी आते हैं तो भी किसी हिन्दुबादी भारतीय  नेता का इस अवसर पर  नेपाळ आना सम्भव है । एक आम हिन्दु का इस पावन अवसर पर जनकपुर आना साधारण सी बात है परन्तु भारतीय जनता पार्टी के नेता का नेपाल की पावन नगरी पर आना कुछ मायने जरुर रखता है । वीजेपी के कई नेता विगत से ही नेपालको हिन्दुराष्ट्र के रुपमें रहने देने के पक्ष में बयान देते रहे हैं ।

आगामी साल भारत में आम चुनाव होने है और इस चुनाव में हिन्दुत्व के मसले को अन्देखा करने की मुड में भाजपा नहीं है । बिते चार सालों में सत्ता में रहने के बाद उसमें आत्मविश्वास बढा है कि हिन्दुत्व को पकडकर भी चुनाव जिता जा सकता है । संभवतः इस धार्मिक उत्सव में नेपाल आकर योगीजी सिमावर्ती बिहार और उत्तरप्रदेश के हिन्दु मतदाताओं को भरोसा दिलाना चाहते हैं । यह भी हो सकता है इससे नेपाल के हिन्दुजागरण को कुछ प्रोत्साहन देने की मंशा होे ।
   
    हिन्दूराष्ट्र नेपालको जब वहां की संसद ने सन् २००७ में धर्मनिरपेक्ष घोषित कर दिया तब आमलोगों में एक सुगबुगाहट सी पैदा हो गई कि भई यह सब अचानक कैसे हो रहा है ? फिर भी अस्सी फिसद हिन्दु आबादीवाले देश में ऊँचे स्वर में हिन्दुत्व के पक्ष में नारे नहीं लगे ।  लगता था, तत्काल लोगों का असंतोष बहुत बडे पैमाने में बहार आएगा । आशंकाएं थी कि इस असंतोष में कहीं राजनीतिक परिवर्तन से मिले अन्य कुछ राजनीतिक उपलब्धियों से भी हाथ धोना न पडे । परन्तु आश्चर्य की बात थी कि कोई बहुत बडा हंगामा नहीं हुआ ।

 अलोकप्रिय राजा के समर्थक कुछ ताकतों ने इसे एक राजनीतिक सवाल बनाना चाहा क्योंकि वे जानते थे कि आमलोग संसद की इस निर्णय से संतुष्ट नहीं हैं । फिर भी लोगों ने उन पर विश्वास नहीं किया । जातीवाद और क्षेत्रवाद की कोलाहलपूर्ण माहौल में हिन्दूत्व का सवाल हासिए से बहार पडा रह गया । वैसे जाति और धर्म आम लागों के लिए बहुत ही संवेदनशील बात है, इसलिए राजनीति करनेवालों के लिए यह  अक्सर उपयोग का मसला बन जाता है । तब समस्या खडी हो जाती है । नेपाल बौद्ध मुस्लिम ईसाई और कई धर्म के अनुयायी सदियों से साथ साथ रहते आए हैं । यहां के लोगों में उग्रसाम्प्रदयिकता की भावना अबतक नहीं है ।  हिन्दुराष्ट्र रहते हुये नेपाल में धार्मिक साम्प्रदायिकता को जगह नहीं मिल पायी ।

    नेपालको हिन्दुधर्म से धर्मनिरपेक्ष बनाने का प्रस्ताव कैसे, किस प्रयोजन से संसद में लाया गया और कैसे किसी खास बहस के वगैर अत्याधिक संख्या में सांसदों ने उसे पारित कर दिया ? सवाल के जवाब में उस समय के सांसद अनभिज्ञता प्रकट करते हुये लोगों को हैरानी में डाल देते हैं । ऐसे सांसदों को जनता का प्रतिनिधि कहना जनमत का माखौल उडाना था ।

    राजनीतिक अस्थिरता के उस दौर में आसपास के शक्तिशाली देशों का ही नहीं पश्चिमी देशों का भी नेपाल खेल मैदान बना हुआ था । भारत नेपाल में अपना प्रभाव बरकरार रखने पर केन्द्रित था, युरोपियन युनियन नेपाल में जनजाती, आदीवासी आन्दोलन और धर्म के मामले में जोर दे रहा था । चीन भी पिछवाडे से जातीय राज्यों के खिलाफ था । अधिकांश लोगों मानना है कि नेपाल में ईशाईयो की संख्यात्मक वृद्धि के लिए ही पश्चिमा देश नेपाल को धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहते थे । पश्चिम ही नहीं कोरिया से भी इसाई मिशनरी इस काम के लिए सक्रिय था ।  विभिन्न मिशन के लिए नेपाल आए पश्चिम के लोग धर्मनिरपेक्षता के लिए दबाव डाल रहे थे ।

     बात किसी व्यक्ति का किसी धर्म विशेष को मानने नमानने से नहीं है, बात है, कैसे बाहरी ताकत अपनी स्वार्थ को कमजोर देश पर थोपने में कामयाब हो जाते हैं । विदेशी स्वार्थ को नेपाल में निवेश के लिए नेपाल के किन किन नेताओं ने संवाहन का काम किया अभी पुरा तथ्य लागों के सामने आना बाकी है । नेपाल में धार्मिक द्वन्द कोई बडी समस्या ही नहीं थी तो फिर इस मसले को इतनी जल्दबाजी में क्यों पारित क्यों करना पडा ?
          
    हिन्दुस्तान में जब मुसलमान शासक हिन्दुओं पर अत्याचार कर रहे थे कई लोगो ने अपना धर्म बचाने के लिए नेपाल की ओर आकर शरण लिया था और कईयों को जबरन ईश्लाम कबुल करवा लिया गया था । नेपाल के गोरखाली राजा पृथ्वीनारायण ने भारत में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को देखते हुये नेपाल को असली हिन्दुस्तान कहा था । मतलब उनकी महत्वकांक्षा हिन्दुओं का राजा बनना भी था । इतिहास की इनबातों को लेकर इस समय मुसलमानों के प्रति प्रतिशोध साध लेने की सोच रखना उचित नहीं होगा । इतिहास से सिर्फ शिक्षा लिया जा सकता है, हुबहु दोहाया नहीं जा सकता ।

    सन् १००० से २७ तक गजनी का मुसलमान साशक मोहमद गजनी ने भारत पर सत्रहबार आक्रमण किया था । सन् १०२१ में उसने पंजाबको जितकर अपने राज्य में मिला लिया । उसका खास मकसद भारत पर राज्य करना नहीं था । उसने हरबार भारत से लुटपाट मचाकर धन दौलत को अपने साथ ले गया और हिन्दुओं के कई मठ मन्दिरों को भी नहीं बक्सा । उसके बाद मुसलमानो का खौफ सारे भारतवर्ष में फैल गया । संभवतः मोहम्मद गजनी के बाद अलग अलग समय और जगहों से मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण किया और शासन करना शुरु कर दिया । कुछ शासकों ने हिन्दुओं पर जजिया टैक्स भी लगाये । जजिया से बचने के लिए कईयों ने ईश्लाम को स्वीकार किया । मुसलमानों का प्रभाव भारत में अंग्रेजों के बढते प्रभाव के साथ ही कमजोर होता चला गया ।

नेपाल भी मुसलमान अक्रमणकारी से नहीं बच पाया । विक्रम संवत १४०६ में नेपाल घाटी (काठमाण्डौ) में बंगाल के सुल्तान सम्शुद्दीन ईलियास शाह सिंधुली होते हुये नेपाल पहुँचा और घाटी में पुरब की ओर से भारी आक्रमण किया । उसने सात दिन तक घाटी को लुटा । पशुपतिनाथ मन्दिर में तोडफोड किया, स्वयंभू पर आग लगाया । राजा और प्रजा डर के मारे जंगलों मे जा छिपे । सात दिन बाद वह अपने फौज के साथ वापस चला गया ।
 
भारत में बडे तादाद में हिन्दुओं ने अतित में हुये मुसलमान के अत्याचार के इस कडव सच की पीडा को पीढियों बाद भी पुरी तरह नहीं भुलाया है । अंग्रेजों से आजादी के तत्काल बाद हिन्दु मुसलमान के नाम पर भारत का बटवारा तक किया गया । बटवारे में कहीं न कहीं इस पीडा की भी भूमिका है ।  हिन्दु मुसलमानो के नाम पर  आज भी कई कस्बों और गली मुहल्लों में तनाव चलता ही रहता है । दुनिया के बडे लोकतन्त्र ने भी अब तक मजहव की लकिर को मिटा नहीं सका है । तर्क के रुपमें यह कोई गलत बात तो नहीं कि जब बटवारे में जब मुसलमानों के लिए एक हिस्स दिया जा चुका है तो बचे हिस्से में हिन्दुओं का वर्चस्व होना चाहिए परन्तु धर्मनिरपेक्षता के ढाँचे में ढल चुके भारत के अतित की अपेक्षा वर्तमान पर नजर रखना शायद ज्यादा उचित रहेगा । भाईचारे को पुख्ता करने के लिए दोनों सम्प्रदय को काम करने की आश्यकता है । इस सवाल पर भारत के निर्णय का असर सारे दक्षिण एशिया में पडना निश्चित है ।      
        
बाबुराम पौड्याल

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