अब चीन और भारत बीच की दूरियों का मतलब एशिया की तबाही

अमरीकी  स्वार्थ का कहीं भी केन्द्रित होने से वहा अधिकतर द्वन्द का बीजारोपण होता देखा गया है । इस समय एशिया और आसपास उसकी नजर है।  चीन और भारत को चाहिए कि वे अमरीकी पैंतरेबाजी को समझते हुये आपसी फसले को कम करें । नहीं तो, एशिया में आनेबाले दिनो मे  कई जगह भयानक द्वन्द हो सकते हैं ।


फिलहाल एशिया पर बाहरी दुनियाँ की तकरीबन सभी मौजूदा और मुकाम की ओर आगे बढ रही  महाशक्तियों की पैनी नजर है । पूर्वी एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में बढती रणनीतिक सरगर्मियों का यही मतलब निकाला जा सकता है । अगर कुछ अनहोनी नहीं होती है तो आनेवाले कुछ दशकों में ही एशिया विश्व का आर्थिक केन्द्र बनने की ओर अग्रसर है । इसी के चलते एशिया की भू—रणनीतिक महत्व ऐसी शक्तियों के लिए  निरन्तर बढता नजर आता है । शीतयूद्ध के समाप्ती के बाद रणनीतिक समीकरणों में आयी विखराव के बाद इस महाद्वीप में भूराजनीतिक समीकरण पुरानी से नई स्वरुप में ढल रहा प्रतीत हो रहा है ।

 The Shanghai Cooperation Organization Summit Kicks Off in Bishkek चीन की दूनियाँ में आर्थिक वृद्धि के जरिये फैलने की रणनीति, भारत का बढता अर्थतन्त्र और जापान की निरन्तर चलरही तरक्की से उत्पन्न स्थिती से अमरीका जैसे पारम्परिक अर्थ—सामरीक महाशक्ति को अपना प्रभुत्व हाथ से निकलने का भय सता रहा है । वैसे अमरीका में डोनाल्ड ट्रम के उदय के बाद उसके प्रभाव में कुछ अस्थिरता दिखाई देने के बावजुद उसके मकसद में खास बदलाव नहीं दिखाई देता है ।


  कुछ दशक पहले तक उसके पाकिस्तान के साथ अच्छे सम्बन्ध थे परन्तु अब वह पाकिस्तान की अपेक्षा भारत के नजदीक हो चला है । सन् २००१ मे अमरीका में हुये आतंककारी हमले के पश्चात् उसकी पारम्परिक विदेश नीति में आतंकवाद का प्रतिवाद हवी हो चला है । दरअसल उसमें यह बदलाव अकेले आतंकवाद के चलते नहीं आया है । एशिया में वह आनेवाले दिनों में संभावित संवृद्धि में अपना प्रभाव बरकरार रखने के लिए भी काम कर रहा है । इसके लिए वह भारत और चीन को अलगथलग रखने की मंशा रखता है । भारत और जापान के बीच अच्छे सम्बन्ध हैं परन्तु समस्या चीन और भारत के बीच है ।  आतंकवाद को परास्त करना अमरीका के लिए तात्कालिक आवश्यकता है परन्तु एशिया में आनेवाले दिनों में अपनी स्थिती मजबुत बनाये रखना उसके लिए दीर्घकालिक आवश्यकता है ।
               चीन अब दुनियाँ के किसी भी ताकत
              के लिए अन्देखा करने योग्य नहीं रहा ।
                इस दशक की अधिकतर कुटनीती का 
                केन्द्र चीन बन गया है । उससे जुडने
                ओर उसको रोकनेवाले शक्तियों के बीच 
                       में इस समय चीन है ।  
यह सच है कि चीन, भारत और जापान के बीच दूरियाँ बढने से अमेरीका अपने मिशन पर आसानी से कामयाब हो पायेगा । यदी चीन और भारत अपनी सुझबुझ से सम्बन्धों में सुधार लाते हैं तो अमरीका के लिए एशिया में बडी चुनौति हो सकती है । इसके लिये वह हरसंभव प्रयास करेगा । जिससे इस क्षेत्र के देशों में अस्थिरता की संभावनाएं  और बढ सकती है ।
 इनदिनों अमरीका भारत के जरिये इस क्षेत्र में चीन के फैलाव को रोकने की रणनीति पर काम कर रहा है । बिमेष्टिक, क्वाड, इण्डोप्याशिफिक रणनीति जैसे संगठनो कोे दीवारों के रुपमें खडा कर चीन को रोकने की पुरजोर कोशिसें की जारही है । दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन (सार्क) को निष्क्रिय करना भी इसी रणनीति का हिस्सा है ।  भारत भी चीन के बढते प्रभाव से सशंकित है । इस में चीन और पाकिस्तान के बीच बढते नजदिकी रिश्ते भी कारक हैं । इस मसले पर भारत और अमरीका एकसाथ काम कररहे हैं  ।

                  भारत भी शायद अमरीकी मंशा को समझता है ।
               भारत का चीन और रुस संलग्न संगठनों में हिस्सा
             लेना और दोनों देशों के बीच सभी स्तरों की कुटनीतिक
              मुलाकातों में बढोत्तरी, इसबात को संकेत करता है ।

पहली जून २०१९ को सिंगापुर में आयोजित “सांग्रीला डायलग” के मौके पर अमरीका द्वारा जारी इण्डो—प्यासिफिक रणनीतिक प्रतिवेदन में एशिया के देशों को अपनी पसन्द और नापसन्द के आधार पर वर्गीकरण करते हुये उसने आनेवाले दिनों में एशिया में अपनी रवैये को संकेत किया है । अमरीकी रक्षा सचिव पेट्रिक एम सनाहन द्वारा हस्ताक्षरित यह प्रतिवेदन वाकई में अर्थपूर्ण है । चीन, ईरान, उत्तरकोरिया और रुस के प्रति उसकी आशंका प्रतिवेदन में दिखाई देता है ।

इस ओर २०१९ जून १३ तारीख से कजाकिस्तान के बिस्केक में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य देशों के सरकार प्रमुखों का शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ । सन् २०१७ से दक्षिण एशिया के भारत और पाकिस्तान भी इसके सदस्य हैं । सन् २००१, जून १५ को चीन की सक्रिंयता में स्थापित इस संगठन में चीन, रुस, कजाकिस्तान, किर्गिजिस्तान, तजाकिस्तान सदस्य थे । उज्बेकिस्तान का प्रवेश बाद में हुआ । इस संगठनका मकसद युरेशियाई क्षेत्र में आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा साझा फायदे के लिए काम करना था । फिलहाल भी यह संगठन आर्थिक, सुरक्षा तथा अन्य आपसी सहयोग केन्द्रित है । इस तरह के एशियाई मंचों की सक्रियता से अमरीका सशंकित रहता है । भारत भी शायद अमरीकी मंशा को समझता है । भारत का चीन और रुस संलग्न संगठनों में हिस्सा लेना और दोनों देशों के बीच सभी स्तरों की कुटनीतिक मुलाकातों में बढोत्तरी, इसबात को संकेत करता है ।

                 अमरीका के लिए तिब्बत और कम्युनिज्म 
               जैसे पुराने मुद्दों से अधिक अब चीन के वढते
                 प्रभाव को रोकना प्रमुख मुद्दा है । नेपाल को
                इसके लिए एक पायदान के रुप में प्रयोग
                 करने की रणनीति अब भी अमरीका की है ।     


चीन अब दुनियाँ के किसी भी ताकत के लिए अन्देखा करने योग्य नहीं रहा । इस दशक की अधिकतर कुटनीती का केन्द्र चीन बन गया है । उससे जुडने ओर उसको रोकनेवाले शक्तियों के बीच में इस समय चीन है । अमरीका अपनी नीति अनुरुप भारत को चीन इरान और रुस से अलगथलग करना चाहता है । उसने भारत पर दबाव देने के लिए भारत से आयातित सामानों पर दी गई रियायत को हटा दिया है । इससे अमरीकी बाजारों में भारतीय सामानों की किमत बढ रही है । महाशक्ति अमरीका को अन्देखा कर देना भी भारत के लिए जोखिमपूर्ण है, इसलिए फिलहाल अमरीका का दामन थामे रहने की नीति भारत की है । जो भी हो, भारत और चीन को चाहिए कि वे आपस में मौजुद सभी असमझदारियों को हटाएं और विश्वास का माहोल बनायें । इससे अकेले उन दोनों ही नहीं एशिया के सभी देशों को फायदा होगा । 

                   सच कहा जाये तो अमरीका ने शीतयद्ध
                  के समय में हिन्दकुश पर्वत श्रृखलाओं 
                 के आसपास काबुल की साम्यवादी हुकुमत 
                 के खिलाफ कई ईश्लामिक गुटों को सभी 
                 तरह से समर्थन देकर हथियारबन्द संघर्ष
               के लिए भडकाया । उसका यही फसल अब
               आधुनिक आतंकवाद के रुपमें दुनियाँ को 
                        अशान्त कर रखा है ।

                  
शीतयुद्ध के समय से ही अमरीका ने चीन और भारत को निगरानी करने के लिए काठमाण्डौ स्थित अपने  खुफिया एजेन्सियों और कुछ विदेशी संस्थाओं को प्रयोग में लाता रहा था । इस काम में  अमरीकी मिशनरियों को भी प्रयोग में लाया गया । सन् १९५४ से इसाई धार्मिक संगठन युईटेड मिशन टु नेपाल और भाषा के क्षेत्र में काम करनेवाली समर इन्स्टिच्यूट अफ लिङगुइस्टिक (SIL)  ने सन् १९५६ से नेपाल में काम करना शुरु किया था । सील के उपर इतने गम्भिर आरोप थे कि अपने एक हेलिकोप्टर के जरिए नेपाल चीन सरहद पर चीन विरोधी तिब्बती विद्रोहियों को सहयोग पहुँचाता है । इसतरह की गतिविधियों के कारण सन् १९७६ इस संस्था को नेपाल छोडने का कहा गया  था । इसबात का जिक्र डा. युवराज सङग्रौला ने अपनी किताब साउथएशिया चाईना जियोईकोनोमिक्स में भी किया है । सन् १९६० में  नेपाल के मुस्ताङ जिले के नेपाल चीन शरहद पर दलाई लामा समर्थक खाम्पा विद्रोहियों को चीन के खिलाफ सैन्य प्रशिक्षण और हथियार अमरीका ने मुहैया कराया था । अमरीका के लिए तिब्बत और कम्युनिज्म जैसे पुराने मुद्दों से अधिक अब चीन के वढते प्रभाव को रोकना प्रमुख मुद्दा है । नेपाल को इसके लिए एक पायदान के रुप में प्रयोग करने की रणनीति अब भी अमरीका की है ।     

 जाहिर है भारत और पाकिस्तान सन् १९४७ में एक ही देश की विभाजन से बने हैं, तब से ही दोनों देशों के बीच तनाव भरे सम्बन्ध चल रहे हैं । दोनों के बीच तीनबार यूद्ध भी हो चुके हैं । भारत का आरोप है कि पाकिस्तान भारत में आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने का काम करता आ रहा है । परन्तु पाकिस्तान इन आरोपों से इन्कार करता है । सच कहा जाये तो अमरीका ने शीतयद्ध के समय में हिन्दकुश पर्वत श्रृखलाओं के आसपास काबुल की साम्यवादी हुकुमत के खिलाफ कई ईश्लामिक गुटों को सभी तरह से समर्थन देकर हथियारबन्द संघर्ष के लिए भडकाया । उसका यही फसल अब आधुनिक आतंकवाद के रुपमें दुनियाँ को अशान्त कर रखा है । दूनियाँ में जहाँ भी अमरीकी सक्रियता केन्द्रित हुआ है वहाँ दहशत का लम्बा दौर शुरु हुआ है— यह इतिहास है ।             
             

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