भारतीय लोकसभा चुनाव : कम्यूनिष्टों का सिकुडता प्रभाव

२०१९ के लोकसभा चुनावों ने भारतीय  जनतापार्टी की जीत ने बिपक्ष की अन्य  सभी राजनीतिक शक्तियो के साथसाथ कम्युनिस्ट ताकतों को  भी सकते में डालदिया  है। 

 भारत में २०१९ में हुये सत्रहवें लोकसभा चुनावों के नतिजों ने कम्युनिष्टों को और भी खराब स्थिती पर पहुँचा दिया है । कम्युनिष्टों के पास भारतीय आमलोगों के पक्ष में धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक सबलिकरण, सुशासन और समानता जैसे मुद्दे परम्परा से ही रहे हैं, फिर भी उनको जनता क्यों क्रमश नकार रही है — सोचनिय बात है । इससे यही सिख मिलती है कि अकेले मुद्दों का सही होना ही संसदीय राजनीति में सफल होना नहीं है उस में जनता भरोसा का होना भी महत्वपूर्ण है । संसदीय लोकतन्त्र में हिस्सेदारी करते आरहे सीपीआई, सिपिएम और सिपीआई एमएल जैसे कम्युनिष्ट पार्टियों के लिए चुनावी असफलता उनके अन्दर की खामियों की ओर ईशारा करता है ।

  इन चुनावों में दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी के भगवा रंग में इस कदर भारत रंग गया कि उसके सभी विपक्षों की हैसियत तकरीबन हासिये से बाहर दिखाई देता है । भाजपा के पास बहुसंख्यक भारतीयों के पक्ष में मुद्दे बहुत ही कमजोर थे फिर भी जनता नें उसे आनेवाले पाँच साल के लिए भी भरोसा किया । भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार के अनुचित हथकंडों को भी अक्सर लोग उसकी बडी जीत के लिए कारण मानते हैं परन्तु विपक्षियों की बडी चुनावी असफलता के लिए यह कारण ही प्रमुख नहीं है । इसके लिए वे खुद ही प्रमुख रुपसे जिम्मेवार हैं ।
  
भारत के उत्तरी पडोसी देश नेपाल में तकरीबन डेढसाल पहले सम्पन्न चुनावों में माओवादी और माक्र्सवादी लेनिनवादी पार्टी की एकिकरण से बनी नेपाल की कम्युनिष्ट पार्टी ने भारी मतों से जित हासिल करते हुये सरकार बनायी थी । लेकिन भारत में स्थिती बिल्कुल अलग देखने को मिली । दक्षिण एशिया में नेपाल ही ऐसा देश है जहाँ पिछले तीन दशक में कम्युनिष्टों के प्रभाव में भारी ईजाफा हुआ है ।

वैसे भारत में भी संसदीय लोकतन्त्र में अनास्था प्रगट करते हुये हिंसा में विश्वास करनेवाले माओवादी कम्युनिष्टों का अलग धार भी है । भारत के मध्यपूर्वी हिस्से में इसका प्रभाव बरकरार है । हिंसा के जरिये से परिवर्तन लाने की व्यवहारिकता दूनियाँ में अब कहीं भी कारगर नहीं है । इस माहौल में यह धार भी विभिन्न आरोपों से खाली नहीं है । श्रीलंका में ताकतवर तमिल जातिय संघर्ष के पतन और नेपाल के माओवादियों के बडे हिस्से का शान्तिपूर्ण राजनीति में अवतरण के बाद दक्षिण एशिया में भारत के कश्मिर और उत्तरपूर्वी भारत के उल्फा और नागा विद्रोह ही पृथकताकतावाद के नाम पर किसी तरह अस्तित्व में हैं ।
      
         सन् २०१४ के लोकसभा चुनावों में कम्युनिष्ट दलों को १२ सीटें मिली थी । इसबार यह संख्या सिर्फ ५ तक ही सिमट कर रहगया है । सन् २००४ में लोकसभा में इन दलों के ५९ सांसद चुने गये थे । उसके बाद २००९ में २४ सांसद, २०१४ में १२ सांसद होते हुये अब ५ हो गये हैं । बिते पन्द्रह सालों में संसदीय मोरचे में इन दलों के लगातार गिरते ग्राफ ने बहुतों को हैरत में डाल दिया है । त्रिपुरा, पश्चिमबंगाल और केरल जैसे कम्युनिष्टों के किलों में भी उनका प्रभाव बहुत कमजोर पड चुका है । तीन दशक से अधिक समय तक सत्तासीन कम्यूनिष्टों को  ममता बेनर्जी की तृणमूल कंग्रेस ने पश्चिमबंगाल की सत्ता से बाहर किया था । वहाँ इसबार की चुनावों में कम्यूनिष्टों का खाता तक नहीं खुला और कई प्रत्यशियों ने अपनी जमानत तक बचा नहीं पाये ।

दक्षिणपंथी भाारतीय जनतापार्टी के विपक्ष में बनी गठजोड भी जातिय क्षेत्रिय महत्वाकांक्षाओं के कारण बहुत कमजोर रही । जिसके चलते कम्युनिष्टों को उस मे शामिल होने की मंशा होते हुये भी बाहर ही रहना पडा । जो भी हो चुनाव के नतिजे ही उनकी स्थिती को स्पष्ट करते है ।
     
कम्युनिष्टों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण जैसा भी हो उसको लेकर दुनियाँ में जो शासकिय प्रयोग किये गये हैं उन में अधिकतर असफल हो गये हैं । दुनियाँ में पूंजीवाद के बदते तेवर के सामने उनकी रणनीति  कई जगह कारगर नहीं है । इसका असर भी भारत जैसे देश में कम्यूनिष्टों पर पडा है । माक्सवाद को स्थानिय रुपमें परिभाषित करने में भी कई देशाें में कमजोरियाँ हुई है । भारत भी इसमें अछुता नहीं रहा ।
   
 पिछले कुछ दशकों से भारत में कम्युनिष्टों की सांगठनिक सक्रियता बहुत ही धीमी पड गयी है । कम्युनिष्टों को कभी लौह अनुशासन और सक्रिय संगठन के लिए जानाजाता था । मजदूर, किसान, छात्रों और आम लोगों की जद्दोजेहाद में उनकी मजबुत शिरकतदारी रहती थी । वैसा अब नहीं दिखाई देता है । समय के बदलाव के साथ लोगों की बदलती मानसिकता और समस्याओं के प्रति लोगों में बदलती नजरिये को अन्दाज लगाना और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी कमियाँ हुई है । पार्टी की सक्रियता कम होने के कारण नये पीढी के कैडरों का आकर्षण कम होता जारहा है । नेतृत्व में भी इसका असर साफ दिखाई देता है । हरेक धार के कम्यूनिष्ट ताकताें बीच संवाद की स्थिती भी बेहद कमजोर है । इसका नकारात्मक असर भी चुनावों में कम्यूनिष्टों पडा है ।            

टिप्पणियाँ

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