सचमुच नेपाल कालापानी को लेकर सौदेबाजी कर रहा है ?

कहने को नेपाल और भारत बीच के सम्बन्धो मे फासले बहुत कम है परन्तु बितते समय के साथ फासले  बढ्ने के आसार नजर आने लगे है। कालापानी विवाद दोनों के लिए कहिँ  कील न बन जाये। 

भारत द्वारा ६ नभेम्वर को जारी अपने संशोधित नक्शे में कालापानी को अपनी ओर दिखाने के बाद आरोप प्रत्यारोप का बौछार जारी है । मूलधार की मिडिया से लेकर सोसल मिडिया  की सूचनाओं में बहुत सारी भ्रान्तियाँ और उत्तेजना देखने को मिलती है । नेपाल में बढते आक्रोश को देखते हुये भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने नेपाल की ओर सिमा पर किसी संशोधन को इन्कार किया है । नेपाल सरकार ने भी एक पक्षिय रुपसे सिमा पर किये गये किसी संशोधन को अस्वीकार करते हुये लिम्पियाधुरा तक की जमिन पर दावा किया है ।
 
 भारत में स्वयंम् को विज्ञ दावी करनेवाले कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि नेपाल कालापानी को लेकर भारत के साथ सौदेबाजी कर रहा है तो कुछ बडे बैनर के कुछ कुटनीतिज्ञ चेतावनी भरे अन्दाज में कह रहे हैं कि इस मसले पर नेपाल को खामियाजा भुगतना पड सकता है । कालापानी में भारतीय सैनिकों उपस्थिति को लेकर नेपाल में पहले से ही आक्रोश था, हाल में जारी नक्शे ने इसे और भड्काया है । इतने संवेदनशील मसले पर इसतरह की सतही टिप्पणी से समस्या सुलझने के बजाये और उलझने की संभावना है । वैसे कालापानी में भारतीय सैनिको की उपस्थिति छह दशक पहले से ही है नेपाल तभी से नाराज है । नेपाल और भारत जैसे करिबी देशों के बीच इस मुद्दे प्राथमिकता में रख कर सौदेबाजी करने से बाकी सम्बन्धों को खटाई में डालना मुनासिब नहीं था । सन् १९७० से ही नेपाल किसी न किसी रुपमें नाराजगी जताता रहा है । महाकाली सन्धी के दौरान इस विवाद ने तुल पकडा ।
   
सन् १८१६ में नेपाल और बृटिश इंडिया के बीच हुई जंग में नेपाल के पराजय के पश्चात सुगौली संधी की गई थी । उस संधी के कारण पश्चिम में कांगडा तक फैले नेपालको काली नदी तक ही सिकुडना पडा था । नेपाल को काली नदी के पश्चिम काँगडा तक की अपनी जमिन बृटिश इंडिया को छोडना पडा था । संधी में साफ लिखा गया है कि नेपाल के राजा और उनके उत्तराधिकारी काली नदी के उसपार की जमिन पर सन्धि के उपरान्त अपना दावा नहीं करेंगे । उसके पश्चात बृटिश इंडिया तथा स्वतन्त्र भारत और नेपाल के बीच अबतक सिमा को लेकर कोई दुसरी सन्धी नहीं हुई है । इसका यही मतलब होता है कि नेपाल की पश्चिमी सिमा अब भी काली नदी ही है ।

वर्तमान में नेपाल भारत सिमा विवाद को लेकर भारतीय खेमें से कई तरह के तर्क प्रस्तुत किया जा रहा है । कुछ लोग कह रहे हैं कि यह जमिन से होते हुये भारत के लोग पूर्वकाल से ही तिब्बत के मानसरोवर तक आते जाते रहे हैं । इसलिए कालापानी भारत की भूमि है । सुगौली संन्धि से पहले की यह दलील कालापानी को भारतीय जमिन सिद्ध नहीं कर सकता है । कालापानी को भारत की भूमि सिद्ध करने के लिए कुछ लोग कहते हैं— कालापानी क्षेत्र भारत के लिए सूरक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है, नेपाल जैसे मित्र देश को अपनी दावे को वापस लेना चाहिए । यह सोच अपने में अन्य बहुत सवालों को खडा कर देनेवाला है । स्वयं की आवश्यकता पुर्ती किसी दोस्त से छिन कर नहीं किया जा सकता । इस व्यवहार के आडे में दोस्ती कभी भी नही पनप सकती । आश्चर्य यही है,नेपाल और भारत जैसे देशों के बीच एक साथ यह सब कैसे चल रहा है ।

पिछले दिनों नेपाल में भारत के राजदूत रह चुके श्याम शरण ने भारत से प्रकाशित एक अखबार में लिखा कि सस्ती लोकप्रियता के लिए नेपाल में भारत के खिलाफ सिमा विवाद को तुल दिया जा रहा है, परन्तु नेपाल औपचारिक रुपसे इस विवाद को वार्ताओं में रखने से कतराता रहा है । उनके इस विचारको देख कर नेपाल में बहुतों को आश्चर्य हुआ ।  सन् २००१ से २००५ तक नेपाल के विदेश सचिव रहे मधुरमण आचार्य ने शरण के इस कथन को खण्डन किया है । शरण ही २००२ से २००४ तक नेपाल के लिये भारतीय राजदूत थे । आचार्य के मुताबिक राजदूत श्याम शरण ही ऐसे व्यक्ति थे जिसने कालापानी और सुस्ता के मसले को नेपाल के प्रयास के बावजुद एजेण्डा से हटाने के लिए भारी लबिङ की थी । उस समय नेपाल राजनीतिक उथलपुथल से दौर से गुजर रहा था । नेपाल में अक्सर सभी भारतीय राजदूत कुटनीतिक दायरे से स्वयं को बाहर समझते है, जैसे वे राजदूत नहीं, दिल्ली से नियुक्त वायसराय हैं ।
    
 हाल ही में चल रहे विवादों के बीच श्याम शरण काठमाण्डौ आकर कुछ नेपाली नेताओं से भी मिले थे । उनका इस यात्रा के पिछे का मकसद तो साफ नहीं है परन्तु लोगों को लगा कि वे कालापानी विवाद के सन्दर्भ में ही नेपाल आये थे । परन्तु नेपाल से लौटने के तुरन्त बाद नेपाल को लेकर आये उनके चेतावनी भरे अभिव्यक्ति मकसद को साफ करता है ।

भारतीय मिडिया में अक्सर कालापानी सिमा विवाद पर नेपाल की प्रतिक्रिया को चीन के साथ जोडकर प्रसारित किया जा रहा है । वैसे सन् २०१५ में चीन ने भी भारत के साथ लिपुलेक दर्रे से दोनों ओर से व्यापार करने की समझारी कर नेपाल को आघात किया था । उस समय भी नेपाल ने विरोध किया था । चार साल बितने के बाद भी यह समझदारी फाईल में बन्द है । भारत और चीन में सिर्फ यही फरक है कि भारत अपनी सेना को नेपाल की भूमि पर साठ साल से भी अधिक समय से इकतरफा तैनात रखा है और चीन ने ऐसा नहीं किया है । परन्तु दोनों पडोसियों की नियत साफ नजर नहीं आती है । उत्तरी सिमा पर तीनों देशों के बीच आपसी समझदारी से त्रिदेशिय  जिरो नम्बर की सिमा स्तम्भ नहीं रखा जा सका है । नेपाल चीन सिमांकन के दौरान भारत की अनुपस्थिति के कारण एक नम्बर से ही स्तम्भ रखा गया है ।
         
 भारत और चीन के मध्य सिमा विवादों के चलते सन् १९६२ में युद्ध हुआ जिसमें भारत को पराजय भोगना पडा । नेपाल चीन और भारत का त्रिदेशिय सिमा विन्दु के आसपास का क्षेत्र होने के कारण कालापानी क्षेत्र भारत के लिए चीन को रोकने व उस पर नजर रखने के लिए रणनीतिक महत्व रखता था । इसी कारण भारत ने काली नदी के पुरब में अवस्थित कालापानी पर अपनी सैनिक टुकडी तैनात किया । इससे पहले सन् १९५२ में नेपाल के चीन से लगे उत्तरी सिमा पर पूरब से पश्चिम तक १८ सिमा पोष्टों पर भारतीय जवान तैनात थे । सन् १९५२ में भारत सरकार द्वारा जारी वक्तव्य के अनुशार नेपाली सेना को तालीम के लिए भारतीय जवानों को भेजा गया था । हैरतअंगेज बात है कि नेपाली  सेना को तालीम देने के लिए चीन की सिमा पर भारतीय सेना को भेजा गया था । दूसरा आश्चर्य है कि भारत चीन तनाव के समय में भी यह मिशन जारी था । समझना आसान है कि नेपाल चीन सिमा में भारतीय सेना की उपस्थिति पर नेपाल से चीनको शिकायत थी । बाद में पूर्वप्रधानमंत्री किर्तिनीधि विष्ट के समय मेें इस मिशन को खारेज किया गया था । सुत्रों का कहना है कि १८ में से १७ पोष्टों के ही भारतीय सैनिक वापस हो गये एक पोष्ट बाँकी था ।

जब कालापानी के सच के प्रति नेपाल के आम लागों में जिज्ञासा बढी, तब न्ोपाल के कुछ सिमा विदों ने बेलायत और अमरीका जाकर सुगौली सन्धि के समय के प्रमाणित नक्शों की पडताल की तो पता चला कि भारत जिसे काली नदी होने का दावा करता है वास्ताव में वह काली नदी तो थी ही नहीं वल्कि एक छोटा सा पानी का श्रोत था जिसे कृत्रिम पोखर में एकत्रित कर उससे निकले झरने को काली नाम दिया गया था । इसका उद्देश्य सिर्फ कालापानी की भारत की ओर  दिखाना था । नेपाल लिपुलेक को मानता था वहाँ से भी पश्चिम में अवस्थित लिम्पियाधुरा ही नेपाल और भारत का सरहद था जहाँ से काली नदी निकलती थी । जिसे स्थानिय लोग कुटी याङदी कहते हैं । बाद वाले नक्शे में उसे कुटी याङदी लिखा जाने लगा ।

     नेपाल और भारत को साथ बैठ कर सुगौली सन्धि को आगे रख कर समस्या पर मित्रवत बातचित करनी चाहिए । अबतक भारत की नेपाल नीति का मुल अस्त्र  समस्याओं को समय पर निपटाने की बजाये लटकाये रखना है । नेपाल में भारत विरोध का यही प्रमुख कारण है । बजह बे वजह नेपाल में भारत की असफलता का ठिकरा बेईजिङ के मत्थे फोडने से भारत की महानता सावित नहीं होती । सिमा विवाद के मुद्दे को नासुर बनने से पहले ही उपचार करना नेपाल और भारत दोनों के हित में होगा । यह कोई सौदेबाजी का सवाल नहीं है ।  
        

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