दिल पर लगा जख्म

दिल्ली दंगों को भले ही साम्प्रदायिक नजरिये से देखने की कोशिसें हो रही है परन्तु इसका बुनियाद सियासी शामियानों के आसपास नजर आता है । आम लोगो का कत्लेआम के वजाये इसका समाधान उन्ही शामियानों मे ढुंढना उचित होगा ।

 यमुना नदी के किनारे अवस्थित भारत की राजधानी दिल्ली पिछले दिनों दिल दहला देनेवाली हिंसा के चपेट में आ गया । भारत का दिल, दिलवालों की नगरी के नाम से पहचान बना रहा इस शहर पर जो बिता वह अकल्पनीय है । तीन दिन तक शहर के उत्तरपूर्वी हिस्से में चली खूनी दंगों में २७ फरवरी तक ३८ लोगों की मौत हो चकी है । यस संख्या और अधिक होती जा रही है । कई महिलाओं का सुहाग उजडा, कईयों के गोद सुने पड गये । कई वेवारिश हो गये । आगजनी में करोडों की क्षती हो गई । बचे लोग भी दहशत के कारण बसेरा छोड रहे हैं । आपसी सद्भाव के माहौल एकाएक बिखर गया ।  फिलहाल २४ फरवरी शाम से स्थिति में क्रमश सुधार होने के खबरें मिल रहे हैं । अबतक संदिग्ध १३० लोगों को हिरासत में ले लिया गया है और ४८ लोगों पर एफआईआर दर्ज किया जा चुका है । सरकार की तरफ से पिडितों कों राहत देने की कोशिशें की जारही है ।

ठिक इसी समय भारत के साथ अच्छे ताल्लुकात रखनेवाला दुनियाँका शक्तिशाली  देश अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत के दौरे पर थे । भले ही ट्रम्प ने इन दंगों के वारे में कोई टिप्पणी नहीं कि परन्तु वे दिल्ली में चल रहे हिंसा से बेखबर थे, ऐसा मुमकिन नहीं है । सरकारद्वारा लाया गया नगरीकता संशोधन कानुन के विरोध और समर्थन के पृष्टभूमि में हुयी ंिहसा को दुनियाँ में सहज रुपमें नही लिया जारहा है । अमरीकी व बृटेन के कुछ सांसद भी इस कानुन के खिलाफत करते आ रहे हैं । इश्लामिक दुनियाँ में भी पहले से ही भारत के प्रति शुरु से ही नकारात्मक नजरिया देखने को मिल रही है । दुनियाँ के सब से बडा सेकुलर लोकतन्त्र के रुपमें भारत का जो बजूद था, उसके कमजोर पडने संभावनाएँ बताई जा रही है ।
  
सन् १९८४ में तत्कालिन प्रधानमंत्री ईन्दिरा गान्धी के हत्या के तत्काल बाद भी दिल्ली पर दंगों का कहर बरपा था । तब भी दिल्ली में ३००० से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी ।  बितते समय के साथ उस जख्म को झेलनेवाले लोगों की स्मृती में कभी कभार भले ही डरावना दस्तक देता रहा हो परन्तु नई पीढी के लोगों को यह डरावना दास्तां सुनकर भी अविश्वसनीय लगता था । चूँकि बादवाला दिल्ली भाईचारे की बगियन में गुजरबसर करने में अभ्यस्त हो चला था । मन्दिरों मश्जीदों गुरुद्वारों और गिरजाघरों में लोगों की आस्था लबालब छलकती थी । उसी तरह का माहौल शहर गली मुहल्लों सामााजिक सद्भाव का माहौल दिखता था ।  दिल्लीवाले की शान्ती और भाईचारे के विरासत में पनपते रिश्तों पर बरपा कहर देखकर भी दिल विश्वास करने को तैयार नही है । फिर भी यही हकिकत है ।

दिल्ली जैसे राजधानी शहर में तकरीबन तीन दिन तक इस तरह के दंगों का होना कई तरह के शंदेहों को जन्म देता है । कई लोग इसे पुलिस और प्रशासन पर लापरवाही का आरोप लगाते हैं । परन्तु इससे अलग सवाल यह भी है कि लोगों की आपसी भाईचारे का रिश्ता सचमूच इतना कमजोर था कि दंगाईयो का सामना नहीं हो पाया । बाहर से गये दंगाईयों को इतना सब करने का हिम्मत कैसे हुई । कुल मिलाकर शक की सुई बडी खामियों की ओर ईशारा करती है ।
      
कुछ ही दिन पहले की बात तो है, दिल्ली में चुनाव हुये और दिल्ली के दिलवालों ने दिल्ली के लिये प्रतिनिधियों को चुना था । दुनियाँ के बडे लोकतन्त्र के रुपमें परिचित भारत में इस तरह के चुनावों में सियासी दलों की हार और जीत का मसला सामान्य माना जाता रहा है । इसबार कई लोगों का मानना है कि दंगों का आधार लगभग चुनावों के आसपास से ही तयार हुवा लगता है ।

राजनीति में धर्म जाती और क्षेत्र का अहंकार का हावी होना राष्ट्रवाद को खण्डित करता है । धर्म जाति और क्षेत्र अस्तित्व हैं उन्हे नकारा नहीं जा सकता । इस सवाल को अगर समय रहते व्यवस्थित नहीं किया गया तो दंगों सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा ।  
            

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