नारी दिवस: तुम्हें किससे मुक्त होना है ?


चोट वही की जाए जहाँ करना  चाहिये।


कोरोना भाईरस संभावित संक्रमण के बीच इसबार भी आठ मार्च के दिन विश्व नारी दिवस मनाया गया । सोसियल मिडिया पर नारी स्वतन्त्रता के पक्ष में काफि कुछ कहा लिखा गया । अखबारों ने भी कमोबेश इसी धर्म को निभाया । हम जब स्कुलों में पढते थे तब इसी दिन गुरुजन सारे बच्चों को इकट्ठा कर आठ मार्च की महत्ता पर हमें सुनाते थे । हम सुनते तो थे परन्तु समझ नहीं पाते थे । बादवाले सालों में हम बातों को थोडा समझते गये । तब लगता था वाकई मेरी प्यारी माँ जिन के गोद में मैं पला हुँ  उन पर औरत होने के कारण इतना बडा भेदभाव किया जाता है ? मुझे प्यार दुलार करनेवाली मेरी दादी, नानी फुफी मौसी और स्कुल में मुझे पढानेवाली गुरुमा सभी औरतें ही तो हैं । क्या वे भी अत्याचारों को झेल रही है — मुझे विश्वास नहीं होता था ।
अब मैं उस अज्ञानता में रमणवाले स्वर्णकाल को दूर अतीत में छोड आया हुँ  । तब के मेरो अपने मेरे पास अब मौजूद नहीं हैं कि मै अपनी इस समय की बात उन्हे कह सकुँ । अगर वे होतीं तो मै उनके आँचलों में बारी बारी से चेहरा छुपा कर रो लेता । शायद मैं अपना दुखडे की अपेक्षा सामाज नें धर्म और संस्कृति के नाम पर जो दमन किया उसके लिए संवेदना और पश्चाताप की आँसु अधिक रोता ।

उम्र के इस पडाव पर खडा होकर मैं समझता हुँ  कि पुरुष और नारी एक दुसरे के बिन पुरे नहीं हैं । एक बाजिव शख्शियत औरत और पुरुष के बगैर बिल्कुल संभव नहीं है । यह किसी समाज का तकाजा बिल्कुल नहीं वल्कि कुदरत का तकाजा है । इसी बात को समझने में शायद चुक हुई है । शदियों से बार बार चुक हुई है ।

तवारीख के पन्नों को पलट पलट कर अब लोग दलिलें पेश करते हैं कि फलाँ मजहबी किताबों में औरतों को नीचा व ऊँचा दिखाया गया है । लगता है लोग भुत को लेकर लडते हुये वर्तमानको जमिंदोज कर रहे हैं । बिते समय से सिख लिया जा सकता है परन्तु हुबहु दोहराया नहीं जा सकता । लाशों को सँवार कर रखा तो जा सकता है उसे जिंदा कर वर्तमान को आवाद नहीं किया जा सकता है । वर्तमान में चल रहीं लैगिक विभेद को मिटाने के लिये पुराने किताबो में नुख्शों को ढुंढना बिल्कुल बेमानी है । या फिर इसी बहाने औरतों को पिंजडे में जस के तस रखना है । इसका इलाज वर्तमान में ही खोजा जाना आवश्यक है ।

नारी मुक्ति का आन्दोलन भटकते हुये कभी कभार उस छोर तक पहुँच जाता है जहाँ पुरुष उसका खलनायक होने का भ्रम अस्तित्व में आता है । वास्तव में स्त्री पुरुषको जनती है गोद में रखकर उसे अपना दुध पिलाकर बडा करती है तो वह कैसे खलनायक बन सकता है ? वह तो एक आधा अधुरा पुरुष है जो दुसरी स्त्री के प्रेमपूर्ण अस्तित्व में समभाव से समाहित होता हुवा खुद पूर्ण होता है और उस स्त्री को भी पूर्ण करता है । स्त्री की पूर्ण होने की प्रकृया भी यही है ।  
                          

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