क्यों होता है नेपाल में भारत का विरोध ?
भारत चीनफोबिया से इतना ग्रस्त है कि उसमें मित्र और शत्रु की परख करने शक्ति क्षीण हो गई है । वह नेपाल जैसे देश को चीन की ओर जाने को विवश कर दिया । यह उसकी भारी विफलता है ।

“नेपाल को हमने बहुत कुछ दिया है । वहाँ के लोगों को रोजगारी दी है, सडकें बनवा दी है, तेल का पाईप बनवा दिया है । नेपाल के विकास के लिए कई योजनाओं में सहयोग दिया है । हमारे यहाँ से जानेवाले सामानों से ही नेपालियों का दिन में दो बार का चुल्हा जलता है । नेपाल भारत का छोटा भाई है और भारत बडा भाई है । बडे भाई का कहा उसे मान लेना चाहिए । उसका भारत के साथ रोटी बेटी का सम्बन्ध है । भुकम्प के आपदा के समय में उद्दार के लिए सब से पहले हम ही पहुँचे थे । इतने कुछ के बाद भी नेपाल भारत को आँखे दिखाकर क्यों विश्वासघात कररहा है ?”
भारत की ओर से इस समय नेपाल के खिलाफ आ रहे इन तर्को का यहि मतलव है कि भारत नेपालको सार्वभौम देश के रुपमें देखना कतई पसन्द नही करता या नेपालको भारत के गलत व्यवहार को भी किसी भी हालात में चुपचाप बर्दास्त कर लेनी चाहिए । शायद अंग्रेजियतवाली विस्तारवादी सोच से भारत को आजादी मिलना अब भी बाकी है । नेपाल भारत का प्रान्त नहीं है ना ही उसका गुलाम । वर्तमान भारत से सदियो पहले नेपाल का स्वतन्त्र अस्तित्व था भले ही उसकी सिमाएँ समय समय पर फैलती और सिकुडती रही । नेपाल को देखने का भारत का यह नजरिया ही दोनों देशों बीच सबसे बडी समस्या है । इससे नेपाल और नेपालियों को चीढ है ।
भारत विगत में सन् १९७०, १९८९ और २०१५ में तीनबार नेपालको नाकाबन्दी कर चुका है । जाहिर है लम्बे अरसे से नेपाल भारत का एकतरफा बाजार रहा है । यहाँ सभी चिजें भारत से ही आयात की जाती है । तीसरे देशों से आनेवाली सामान भी भारत से ही होकर नेपाल आता है । इन हालातों में भारत का नेपाल पर नाकाबन्दी कर देन आम जीवन को कितना कष्टकर रहा होगा — अन्दाजा लगाया जा सकता है । नेपाल को भारत के साथ व्यापार में बहुत बडा घाटा है । नेपाल से भारत को जानेवाली चिजों में भी भारत समय समय पर वजह बेवजह अवरोध खडा करता ही रहा है । भारत से सारी चीजें नेपाल में आती है, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सभी चिजें भारत नेपाल को मुफ्त में देता है । ऐसे में भारत के प्रति नेपाल में प्रसस्ती ही गायी जाये क्या यह सम्भव है ?
नेपाल से भारत की बिल्कुल जायज आपेक्षा है कि नेपाल कि ओर से भारत की सुरक्षा में कोई आँच न आये । भारत की इस अपेक्षा के प्रति नेपाल सदा से प्रतिबद्ध रहा है । भारत के सभी उत्तरी सिमाओं में सब से सुरक्षित ही नेपाल से लगी उसकी की सिमा ही है ।
नेपाल के प्रति भारत के बार बार की नाकाबन्दी के चलते ही नेपाल को चीन के नजदीक जाना पडा । नेपाल अब यह सोचने लगा है कि क्या पता कब भारत फिर नेपाल पर नाकाबन्दी लगा दे, इसिलिए भारत पर इकतरफा निर्भर रहना नेपाल के लिये गले की फाँस बन सकता है । नेपाल का चीन की ओर झुकाव उसकी वाध्यता है जो भारत के नेपाल के प्रति गलत रवैये कारण ही उत्पन्न हो गया है । भारत का यह दुराग्रह कि नेपाल को भारत के हर गलत कदमों को चुपचाप बर्दास्त कर लेना चाहिए, इसलिए कि नेपाल उसका इकलौता बाजार है — भ्रत्सना योग्य है जो किसी भी सच्चे नेपालियों को स्वीकार्य नहीं है ।
भारत की तुलना में अबतक चीन के साथ नेपाल के ना के बराबर विवाद हैं और भारत की तरह नेपाल के अन्दरुनी मामले में चीनी नंगा नाच अबतक कभी नेपाल में देखा भी नहीं गया है । चीनद्वारा कभी नेपाल की सरकार को परेशानी में डालनेवाली बाहर किसी भी नेपाली ताकतों से औपचारिक सम्बन्ध रखने का इतिहास अबतक नहीं है । उस ने न तो सत्ता में बने रहने तक पंचायती राजतन्त्र को सहयोग करना बन्द किया ना ही नेपाल में गणतन्त्र लाने के लिए सक्रिय विद्रोही माओवादियों अपने यहाँ से कोई सहयोग किया । इस मामले में नेपाल में भारत विल्कुल बद्नाम है ।
सन् १९९० के परिवर्तन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गान्धी ने तो खुले आम उसका श्रेय अपने को ही माना था । भारत के द्वारा माओवादी विद्रोहको सह देने और उसे काठमाण्डौ की सत्ता पर बिठाने की गलती आज कुछ भारतीय विष्लेशक बता रहे हैं । सच तो यह था कि भारत माओवादियों, तत्कालिक राजा और लोकतान्त्रिक दलों के साथ तीन तरह की नीतियो का अबलम्वन कर रहा था । चीन ने ऐसा नहीं किया । चीन की नेपाल नीति और भारत की नेपाल नीति जमीन आसमान का फर्क का अनुभव आम नेपाली करता है । भारत के तुलना में नेपाल में चीन की लोकप्रियता का बडा कारण यही है ।
नेपाल भारतीय खुफिया एजेन्सियों का खेल मैदान है । नेपाल के राजनीतिक पार्टियाँ, सुचना संयन्त्र और नोकरशाही तक में इसकी बु आती है । नेपाल में भारतीय राजदुतों को प्रोटोकल मान्य नहीं है । वे नेपाल के हरकोई अधिकारी या नेता से जबचाहे मिल सकते हैं । नेपाल के राजदुत को दिल्ली में मंत्रालय के सचिव से मिलने के लिए भी बडी मसक्कत करनी पडती है । लगता है भारतीय राजदूत को नेपाल में दिल्ली के इशारों पर नाचनेवाली सरकार बनाने के लिए ही नियुक्त किया जाता है ।
सन् १९९० के बाद तो अधिकाँश नौ नौ महिने में काठमाण्डु की सरकार गिराना और बनाने का लम्बा दौर चला । भारत के प्रति लम्बे समय तक नेपाल में विश्वास रहा है कि वह देर सबेर नेपाल को अहित होने का काम कभी नहीं करेगा । सिमा विवाद में अपनी नाराजगी को विगत में नेपाल बडी नरमी के साथ उठाता रहा था । चीन के साथ भारत के विवाद के चलते भी नेपाल तत्काल सिमा विवाद को उठा कर भारत को कठिनाई में डालना नहीं चाहता था । भारत की ओर से उस विश्वास का सम्मान कभी नहीं किया गया । बदले में वह उस जमिन पर ही अपना अधिकार जताने लग गया । इससे बडा विश्वासघात और क्या हो सकता है । उसने वार्ता में आकर नेपाल को प्रमाणिक तौर पर आश्वास्त करना कभी उचित नहीं समझा ।
भारतद्वारा नेपाल के दावे की जमिन से लिपुलेक को जोडनेवाली सडक बनाकर उद्घाटन किये जाने के बाद प्रत्युत्ततर में नेपालद्वारा दावे की जमिन को अपने नक्शे में शामिल किये जाने के बाद भारत के कुछ कथित विष्लेशकों, नेताओं और वहाँ की मुलधार के कहे जानेवाले मिडिया ने इसतरह की एकपक्षिय और आपतीजनक बयानबाजी शुरु की है । अब आकर तो वे नेपाल को चीन के बहकावे में आकर भारत का विरोध करने की हवादारी आरोप भी लगाने लगे हैं । वे इसबात पर आँख मुदते हैं कि चीन और पाकिस्तान के खिलाफ हुये सभी जंग की पहली कतार में रहकर नेपाल के लोग भारत के पक्ष में सरहद पर लडते आये हैं । ऐसी बयानबाजी कोई आमआदमी करता है तो अलग बात थी लेकिन पत्रकारों नेताओं और कुछ विष्लेशकों की ऐसी टिप्पणियाँ हैरत में डाल देती है । नेपाल पर ऐसे आरोपों के लगाने से पहले वे अपनी ही गिरेवान पर झाँकने का कष्ट करते तो शायद उनको इन सभी सवालों का जवाफ मिल जाये ।
वैसे नेपाल और भारत के बिच सिमा को लेकर सन् १८१६ के बाद कोई दुसरी दुसरी सन्धि हुई नहीं है । सन्धि के मुताविक नेपाल महाकाली नदी से पश्चिम की सतलज तक की भूमि पर से अपना अधिकार भारत के लिए छोडने को विवश हाृ गया था । नेपाल का इसलिए उस जमिन पर अपना दावा करना भारत को आँखे दिखाना नहीं है । सन् १९६२ में चीन से हार के बाद भारतीय सेना कालापानी आकर स्थाई रुपसे बस गयी थी । भारत के असहज के दिनो में उसे और कठिनाई में डालना नेपाल नहीं चाहता था ।
विगत में भी नेपाल ने भारत के समक्ष सिमा को लेकर अपने दावे को कईबार दोहराया भी है । भारत ने सिमा की समस्याओं को स्वीकार करते हुये एक सिमा समिक्षा के लिए दोनों देश का संयुक्त कमिटि भी बनाया गया था । इस कमिटि ने अबतक ९८ फिसद काम को पुरा करने का दावा करता है । बाकी बचा कालापानी लिपुलेक क्षेत्र और सुस्ता में से कालपानी लिपुलेक पर एकतरफ सडक आदी निर्माण करना विल्कुल भी नाजायज और दादागीरी की बात है ।
कुछ साल पहले दोनों देश की प्रधानमंत्री स्तरिय सहमती के आधार पर दोनों देशों के बीच की सिमा लगायत की समस्याओं का आकलन करने के लिये दोनों देशों के कुछ विद्वानों का एक ग्रुप का गठन किया गया था और उस गु्रप ने एक रिपोर्ट भी तैयार कर चुकी है परन्तु भारतीय प्रधानमंत्री उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया है ।
नेपाल के दक्षिणी सिमा में भारतीय सिमा सुरक्षा दल की स्थानिय नेपाल के लोगों पर की जानेवाली हरकतों ने तो भारत के प्रति नेपाल में बडा रोष देखने को मिलता है । इन सुरक्षाकर्मियों की गोली से नेपालियों की हत्या तक की गई है । इन हालातों में भारत नेपाल से जय जयकार की अपेक्षा रखता है ?
सन् १९७६ में पूर्वोत्तर भारत में सन् १९५० की सन्धि के तहत रहरहे नेपाली नागरीकों पर प्रशासनिक दमन का लम्बा दौर चला । सन् १९८६—८७ में मेघालय से अवैध विदेशियों के नाम पर दसियों हजार नेपालियों गिरफ्तार कर या तो जेल में डाला गया या फिर ट्रकों मे डालकर बंगाल की ओर खदेडा गया । भुटान में चलरहे प्रजातांत्रिक आन्दोलन पर भूटान सरकार के दमन से भारत आये हजारों नेपाली भाषी भूटानी नागरिकों को भारत ने ट्रकों में भर भर कर नेपाल भेजने की गैर जिम्मेदार कार्य किया । इस समस्या से नेपाल को लम्बे समय तक जुझना पडा ।
नेपाल के साथ के सभी मुद्दों को समय पर भारत कभी भी हल नहीं करता है । चाहिये तो यह था कि दोनो देश ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर एक निष्कर्श पर पहुँचे परन्तु भारत बाद में वार्ता के जरिये निबटारा करने की बात कहता आया है । अगर भारत के पास भी उसके पक्ष में बाजिब प्रमाण हैं तो नेपालको भी मानना ही पडता था । उसी जमिन पर सेना रखता है, जमिनको अपने नक्शे मे दिखाता है और सडक बनाकर उद्घाटन भी करता है । तो नेपाल पर नक्शे को जारी करते हुये जमिन के दावे को बरकरार रखने की वाध्यता सर पर आ गई थी । नेपाल को यह पता है कि यह रास्ता हिन्दु तीर्थयात्री मानसरोवर जाने के लिये शदियों से प्रयोग करते आये हैं । उनको रोकने का नेपाल का कोई ईरादा नहीं है । चूँकि नेपाल भी ९० फिसद से ज्यादा हिन्दु और बौद्धो की आबादीवाला देश है जिनका मानसरोवर और कैलाश पर्वत तीर्थस्थल हैं ।
नेपाल में कोई नहीं चाहता है कि नेपाल भारत सम्बन्धो में गतिरोध हो लेकिन भारत इस भावना का सम्मान नहीं करता है । वह चाहता है कि नेपाल उसे बडा भाई माने । नेपाल को मित्र देशका दरजा देने में उसे दिक्कत है । भारत की गलत नीतियों के कारण ही नेपाल में भारत असफल हो रहा है ।

“नेपाल को हमने बहुत कुछ दिया है । वहाँ के लोगों को रोजगारी दी है, सडकें बनवा दी है, तेल का पाईप बनवा दिया है । नेपाल के विकास के लिए कई योजनाओं में सहयोग दिया है । हमारे यहाँ से जानेवाले सामानों से ही नेपालियों का दिन में दो बार का चुल्हा जलता है । नेपाल भारत का छोटा भाई है और भारत बडा भाई है । बडे भाई का कहा उसे मान लेना चाहिए । उसका भारत के साथ रोटी बेटी का सम्बन्ध है । भुकम्प के आपदा के समय में उद्दार के लिए सब से पहले हम ही पहुँचे थे । इतने कुछ के बाद भी नेपाल भारत को आँखे दिखाकर क्यों विश्वासघात कररहा है ?”
भारत की ओर से इस समय नेपाल के खिलाफ आ रहे इन तर्को का यहि मतलव है कि भारत नेपालको सार्वभौम देश के रुपमें देखना कतई पसन्द नही करता या नेपालको भारत के गलत व्यवहार को भी किसी भी हालात में चुपचाप बर्दास्त कर लेनी चाहिए । शायद अंग्रेजियतवाली विस्तारवादी सोच से भारत को आजादी मिलना अब भी बाकी है । नेपाल भारत का प्रान्त नहीं है ना ही उसका गुलाम । वर्तमान भारत से सदियो पहले नेपाल का स्वतन्त्र अस्तित्व था भले ही उसकी सिमाएँ समय समय पर फैलती और सिकुडती रही । नेपाल को देखने का भारत का यह नजरिया ही दोनों देशों बीच सबसे बडी समस्या है । इससे नेपाल और नेपालियों को चीढ है ।
भारत नेपाल सम्बन्ध में तनाव: भारत कितना जिम्मेदार ?
भारत विगत में सन् १९७०, १९८९ और २०१५ में तीनबार नेपालको नाकाबन्दी कर चुका है । जाहिर है लम्बे अरसे से नेपाल भारत का एकतरफा बाजार रहा है । यहाँ सभी चिजें भारत से ही आयात की जाती है । तीसरे देशों से आनेवाली सामान भी भारत से ही होकर नेपाल आता है । इन हालातों में भारत का नेपाल पर नाकाबन्दी कर देन आम जीवन को कितना कष्टकर रहा होगा — अन्दाजा लगाया जा सकता है । नेपाल को भारत के साथ व्यापार में बहुत बडा घाटा है । नेपाल से भारत को जानेवाली चिजों में भी भारत समय समय पर वजह बेवजह अवरोध खडा करता ही रहा है । भारत से सारी चीजें नेपाल में आती है, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सभी चिजें भारत नेपाल को मुफ्त में देता है । ऐसे में भारत के प्रति नेपाल में प्रसस्ती ही गायी जाये क्या यह सम्भव है ?
नेपाल से भारत की बिल्कुल जायज आपेक्षा है कि नेपाल कि ओर से भारत की सुरक्षा में कोई आँच न आये । भारत की इस अपेक्षा के प्रति नेपाल सदा से प्रतिबद्ध रहा है । भारत के सभी उत्तरी सिमाओं में सब से सुरक्षित ही नेपाल से लगी उसकी की सिमा ही है ।
नेपाल के प्रति भारत के बार बार की नाकाबन्दी के चलते ही नेपाल को चीन के नजदीक जाना पडा । नेपाल अब यह सोचने लगा है कि क्या पता कब भारत फिर नेपाल पर नाकाबन्दी लगा दे, इसिलिए भारत पर इकतरफा निर्भर रहना नेपाल के लिये गले की फाँस बन सकता है । नेपाल का चीन की ओर झुकाव उसकी वाध्यता है जो भारत के नेपाल के प्रति गलत रवैये कारण ही उत्पन्न हो गया है । भारत का यह दुराग्रह कि नेपाल को भारत के हर गलत कदमों को चुपचाप बर्दास्त कर लेना चाहिए, इसलिए कि नेपाल उसका इकलौता बाजार है — भ्रत्सना योग्य है जो किसी भी सच्चे नेपालियों को स्वीकार्य नहीं है ।
भारत नेपाल सम्बन्धों पर गतिरोध में चीन !
भारत की तुलना में अबतक चीन के साथ नेपाल के ना के बराबर विवाद हैं और भारत की तरह नेपाल के अन्दरुनी मामले में चीनी नंगा नाच अबतक कभी नेपाल में देखा भी नहीं गया है । चीनद्वारा कभी नेपाल की सरकार को परेशानी में डालनेवाली बाहर किसी भी नेपाली ताकतों से औपचारिक सम्बन्ध रखने का इतिहास अबतक नहीं है । उस ने न तो सत्ता में बने रहने तक पंचायती राजतन्त्र को सहयोग करना बन्द किया ना ही नेपाल में गणतन्त्र लाने के लिए सक्रिय विद्रोही माओवादियों अपने यहाँ से कोई सहयोग किया । इस मामले में नेपाल में भारत विल्कुल बद्नाम है ।
सन् १९९० के परिवर्तन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गान्धी ने तो खुले आम उसका श्रेय अपने को ही माना था । भारत के द्वारा माओवादी विद्रोहको सह देने और उसे काठमाण्डौ की सत्ता पर बिठाने की गलती आज कुछ भारतीय विष्लेशक बता रहे हैं । सच तो यह था कि भारत माओवादियों, तत्कालिक राजा और लोकतान्त्रिक दलों के साथ तीन तरह की नीतियो का अबलम्वन कर रहा था । चीन ने ऐसा नहीं किया । चीन की नेपाल नीति और भारत की नेपाल नीति जमीन आसमान का फर्क का अनुभव आम नेपाली करता है । भारत के तुलना में नेपाल में चीन की लोकप्रियता का बडा कारण यही है ।
नेपाल को अस्थिर बनाने की भारतीय नीति
नेपाल भारतीय खुफिया एजेन्सियों का खेल मैदान है । नेपाल के राजनीतिक पार्टियाँ, सुचना संयन्त्र और नोकरशाही तक में इसकी बु आती है । नेपाल में भारतीय राजदुतों को प्रोटोकल मान्य नहीं है । वे नेपाल के हरकोई अधिकारी या नेता से जबचाहे मिल सकते हैं । नेपाल के राजदुत को दिल्ली में मंत्रालय के सचिव से मिलने के लिए भी बडी मसक्कत करनी पडती है । लगता है भारतीय राजदूत को नेपाल में दिल्ली के इशारों पर नाचनेवाली सरकार बनाने के लिए ही नियुक्त किया जाता है ।
सन् १९९० के बाद तो अधिकाँश नौ नौ महिने में काठमाण्डु की सरकार गिराना और बनाने का लम्बा दौर चला । भारत के प्रति लम्बे समय तक नेपाल में विश्वास रहा है कि वह देर सबेर नेपाल को अहित होने का काम कभी नहीं करेगा । सिमा विवाद में अपनी नाराजगी को विगत में नेपाल बडी नरमी के साथ उठाता रहा था । चीन के साथ भारत के विवाद के चलते भी नेपाल तत्काल सिमा विवाद को उठा कर भारत को कठिनाई में डालना नहीं चाहता था । भारत की ओर से उस विश्वास का सम्मान कभी नहीं किया गया । बदले में वह उस जमिन पर ही अपना अधिकार जताने लग गया । इससे बडा विश्वासघात और क्या हो सकता है । उसने वार्ता में आकर नेपाल को प्रमाणिक तौर पर आश्वास्त करना कभी उचित नहीं समझा ।
भारतद्वारा नेपाल के दावे की जमिन से लिपुलेक को जोडनेवाली सडक बनाकर उद्घाटन किये जाने के बाद प्रत्युत्ततर में नेपालद्वारा दावे की जमिन को अपने नक्शे में शामिल किये जाने के बाद भारत के कुछ कथित विष्लेशकों, नेताओं और वहाँ की मुलधार के कहे जानेवाले मिडिया ने इसतरह की एकपक्षिय और आपतीजनक बयानबाजी शुरु की है । अब आकर तो वे नेपाल को चीन के बहकावे में आकर भारत का विरोध करने की हवादारी आरोप भी लगाने लगे हैं । वे इसबात पर आँख मुदते हैं कि चीन और पाकिस्तान के खिलाफ हुये सभी जंग की पहली कतार में रहकर नेपाल के लोग भारत के पक्ष में सरहद पर लडते आये हैं । ऐसी बयानबाजी कोई आमआदमी करता है तो अलग बात थी लेकिन पत्रकारों नेताओं और कुछ विष्लेशकों की ऐसी टिप्पणियाँ हैरत में डाल देती है । नेपाल पर ऐसे आरोपों के लगाने से पहले वे अपनी ही गिरेवान पर झाँकने का कष्ट करते तो शायद उनको इन सभी सवालों का जवाफ मिल जाये ।
वैसे नेपाल और भारत के बिच सिमा को लेकर सन् १८१६ के बाद कोई दुसरी दुसरी सन्धि हुई नहीं है । सन्धि के मुताविक नेपाल महाकाली नदी से पश्चिम की सतलज तक की भूमि पर से अपना अधिकार भारत के लिए छोडने को विवश हाृ गया था । नेपाल का इसलिए उस जमिन पर अपना दावा करना भारत को आँखे दिखाना नहीं है । सन् १९६२ में चीन से हार के बाद भारतीय सेना कालापानी आकर स्थाई रुपसे बस गयी थी । भारत के असहज के दिनो में उसे और कठिनाई में डालना नेपाल नहीं चाहता था ।
विगत में भी नेपाल ने भारत के समक्ष सिमा को लेकर अपने दावे को कईबार दोहराया भी है । भारत ने सिमा की समस्याओं को स्वीकार करते हुये एक सिमा समिक्षा के लिए दोनों देश का संयुक्त कमिटि भी बनाया गया था । इस कमिटि ने अबतक ९८ फिसद काम को पुरा करने का दावा करता है । बाकी बचा कालापानी लिपुलेक क्षेत्र और सुस्ता में से कालपानी लिपुलेक पर एकतरफ सडक आदी निर्माण करना विल्कुल भी नाजायज और दादागीरी की बात है ।
कुछ साल पहले दोनों देश की प्रधानमंत्री स्तरिय सहमती के आधार पर दोनों देशों के बीच की सिमा लगायत की समस्याओं का आकलन करने के लिये दोनों देशों के कुछ विद्वानों का एक ग्रुप का गठन किया गया था और उस गु्रप ने एक रिपोर्ट भी तैयार कर चुकी है परन्तु भारतीय प्रधानमंत्री उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया है ।
नेपाल के दक्षिणी सिमा में भारतीय सिमा सुरक्षा दल की स्थानिय नेपाल के लोगों पर की जानेवाली हरकतों ने तो भारत के प्रति नेपाल में बडा रोष देखने को मिलता है । इन सुरक्षाकर्मियों की गोली से नेपालियों की हत्या तक की गई है । इन हालातों में भारत नेपाल से जय जयकार की अपेक्षा रखता है ?
सन् १९७६ में पूर्वोत्तर भारत में सन् १९५० की सन्धि के तहत रहरहे नेपाली नागरीकों पर प्रशासनिक दमन का लम्बा दौर चला । सन् १९८६—८७ में मेघालय से अवैध विदेशियों के नाम पर दसियों हजार नेपालियों गिरफ्तार कर या तो जेल में डाला गया या फिर ट्रकों मे डालकर बंगाल की ओर खदेडा गया । भुटान में चलरहे प्रजातांत्रिक आन्दोलन पर भूटान सरकार के दमन से भारत आये हजारों नेपाली भाषी भूटानी नागरिकों को भारत ने ट्रकों में भर भर कर नेपाल भेजने की गैर जिम्मेदार कार्य किया । इस समस्या से नेपाल को लम्बे समय तक जुझना पडा ।
नेपाल के साथ के सभी मुद्दों को समय पर भारत कभी भी हल नहीं करता है । चाहिये तो यह था कि दोनो देश ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर एक निष्कर्श पर पहुँचे परन्तु भारत बाद में वार्ता के जरिये निबटारा करने की बात कहता आया है । अगर भारत के पास भी उसके पक्ष में बाजिब प्रमाण हैं तो नेपालको भी मानना ही पडता था । उसी जमिन पर सेना रखता है, जमिनको अपने नक्शे मे दिखाता है और सडक बनाकर उद्घाटन भी करता है । तो नेपाल पर नक्शे को जारी करते हुये जमिन के दावे को बरकरार रखने की वाध्यता सर पर आ गई थी । नेपाल को यह पता है कि यह रास्ता हिन्दु तीर्थयात्री मानसरोवर जाने के लिये शदियों से प्रयोग करते आये हैं । उनको रोकने का नेपाल का कोई ईरादा नहीं है । चूँकि नेपाल भी ९० फिसद से ज्यादा हिन्दु और बौद्धो की आबादीवाला देश है जिनका मानसरोवर और कैलाश पर्वत तीर्थस्थल हैं ।
नेपाल में कोई नहीं चाहता है कि नेपाल भारत सम्बन्धो में गतिरोध हो लेकिन भारत इस भावना का सम्मान नहीं करता है । वह चाहता है कि नेपाल उसे बडा भाई माने । नेपाल को मित्र देशका दरजा देने में उसे दिक्कत है । भारत की गलत नीतियों के कारण ही नेपाल में भारत असफल हो रहा है ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Thank you.