चीन भारत टकराव : संवाद का कोई विकल्प नहीं है
भारत और चीन के बीच सिमा में हुई हिंश्रक बारदात से दोनों देशों के बीच युद्ध की संभावना बढती जा रही है । युद्ध से समूचे दक्षिण एशिया में नकारात्मक प्रभाव पडना निश्चित है । यूद्ध और खून खराबे से किसी को भी फायदा नहीं हो सकता । चीन और भारत शान्ति के लिये सोचें ।

लद्दाख के गलवान क्षेत्र के सिमा पर भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई भयानक झडप में २० भारतीय जवानों की मौत हुई है और कई सैनिक घायल और लापता बताये गये थे । उसके बाद जून १८ को दोनो पक्ष के बीच हुई वार्ता के दौरान चीन द्वारा बन्धक बनाये गये १० भारतीय सैनिकों को रिहा कर दिया गया है । चीन की ओर भी मौतें होने का अन्देशा है लेकिन अबतक भी यकिनी तौर पर कुछ कह पाने की स्थिति नहीं है । जून १७ तारीख की ग्लोबल टाइम्स लिखता है “उल्लेखनीय है कि चीनी पक्ष ने चीनी सेना के हताहतों की संख्या का खुलासा नहीं किया, यह एक ऐसा कदम है जिसका उद्देश्य टकराव की भावनाओं को तुलना करने से बचने के लिए था” इस सरकारी कथन को सही माना जाये तो चीन अपनी ओर की सैनिक हताहती के आँकडों का खुलासा नहीं करेगा । चीन और भारत एक दुसरे को घटना के लिये जिम्मेदार बता रहे हैं । भारत की अपेक्षा चीन भारत को जिम्मेदार बनने की चेतावनी देता दिखाई देता है । अपने सैनिकों की मौत को लेकर भारत इस समय सद्मे में है । चीन की अनुदार राजनीतिक व्यवस्था के चलते खुद को लोकतान्त्रिक माननेवाले अमरीकी गठबन्धन और अन्य कुछ देश चीन की सुचनाओं को वास्तविकता से अलग मानते आ रहे हैं ।
भारतीय सैनिक के हबाले से आयी खबरों के मुताबिक २०० भारतीय सैनिकों की टुकडी पर १००० से ज्यादा संख्या में आये चीनी सैनिकों ने पत्थर और रडों से नदी में पाँच घण्टे तक आक्रमण किया । अगर एकपक्षिय रुपसे ऐसा होना निन्दनिय है । भाारतीय मिडिया सुचना के मामले में पहले से ही बदनाम है । चीन से सुचना मिलना संभव ही नहीं है तो ऐसे में सत्य को पहचान करना मुश्किल है ।

सबसे आश्चर्य करनेवाली बात है कि झडप में गोलियाँ नहीं चली जो दोनों पक्ष के बीच गोलियाँ न चलाने की बरसों पुरानी समझदारी के अनुरुप ही था । धक्कमधक्का तो सैनिक हथियार के प्रयोग के वगैर अपने दावी के मुताबिक सिमा पर बने रहने के लिये आजमाते आये हैं । जो कहीं न कहीं दोनों पक्ष की शान्ति की चाह को भी दरशाता है । पिछलीबार दोकलाम में भी यह घट चुका था । लेकिन इसबार मृत सैनिको की बडी संख्या कई प्रश्नों पर सोचने को विवश कर देता है ।
जून माह के ६ तारिख को दोनो पक्ष के कमाण्डरों के बीच वार्ता भी हो चुकी थी जिस में दोनों पक्ष तनाव को कम करने के लिए सहमत भी हो गये थे । दोनों देश सरकारी तौर पर भी सम्पर्क में होने की बात बता रहे थे तो आखिर चन्द दिनों के बाद इतना भयावह स्थिति कैसे उत्पन्न हो गया ? इसमें या तो नेतृत्व हालातों के प्रति इमानदार नही था या फिर सुचना को पहली कतार तक समय पर पहुँचाने में कमी रह गई । झडपों में राईफलों का प्रयोग न होना कहीं न कहीं इसबात की आशंका से इन्कार करता लगता है कि सैनिक अपनी जिम्मेदारी के प्रति बेखबर हो गये थे । शायद धक्कमधक्के से दोनों पक्ष के सैनिकों में एक दुसरे पक्ष के प्रति आक्रोश उत्पन्न हो गया था और दो सामुह के बीच दंगाें के शक्ल में यह दुखद घटना हुई । सचमुच अगर इस बजह से सैनिक आपे से बहार हो कर किसी भी उपरी आदेशों को अन्देखा कर रहे थे तो स्थिति और भी गम्भिर हो जाता है । सैनिको के उपर पडनेवाले मानसिक दबाव के उपर दोनों देशों को जिम्मेदारी के साथ काम करना चाहिये ।
समझने की बात यह है कि दोनों देशों के बीच सिमा विवाद आज का नहीं है । सन् १९६२ में दोनों देशों के बीच युद्ध भी हो चुका था और भारत को बुरी तरह हारना पडा था । उसके बादवाले दिनों में सिमा विवाद के बावजुद व्यापारिक सम्बन्धों को आगे बढाने की समझदारी हो गई थी । उसके बाद दशकों तक सिमा पर तनाव के बावजुद भी सैनिक हताहती नहीं हुई थी । जब सब कुछ पहले जैसा ही है तो अब आकर यह सब क्यों हो रहा है ?
चीन की बढती आर्थिक तरक्की और उसकी वैश्विक ताकत बनने महत्वाकांक्षा ने अमरीका को सकते में डाल दिया है । दूसरा एशिया के भारत चीन जापान और दक्षिण कोरिया जैसे शक्तिशाली देशों के बीच सहकार्य होने लगे तो दुनिया में अमरीका और युरोप शक्ति विहिन हो जायेगे । इसलिए अमरीका एशिया में चल रही आपसी विवादों को भड्काकर एशियाई ताकतों को खण्डिकृत करना चाहता है ।
चीन पूर्वी एशिया में कई जगह और मुद्दों में उलझनों में फँसा है । भारत के पास पडोस में भी चीन की उपस्थिति में इजाफा हुवा है । नेपाल जैसा देश भी भारत के गलत नीतियों के कारण चीन की ओर जाने को विवश हो गया है । नेपाल की स्थिति अब भी “ठहरो और देखो” की है । नेपाल जानता है कि भारत के साथ सम्बन्धों में जो सहजता है वह चीन से नहीं हो सकता है । चीन के साथ रणनीतिक साझेदार बनने पर भी उसपर कोई भारी सक्रियता नेपाल में नहीं दिखाई देता है । नेपाल भारत से सिर्फ अन्दरुनी मामले में अनावश्यक दखलन्दाजी न करने और नेपाल की सार्वभौमिकता को रोटीबेटी और बडेभाई छोटेभाई जैसे शब्दजालों में न उलझाने की प्रतिबद्धता चाहता है ।
भारत स्वयं चीन के साथ बहुक्षेत्रों में आर्थिक साझेदार है लेकिन पडोसी देशों के साथ चीन के सम्बन्धों पर क्यों चीढ है ? यह हैरत में डाल देनेवाली बात है । इसका यही मतलव हो सकता है कि भारत चाहता था कि चीन भारत के पडोसियों को भी भारत के जरिये ही व्यवहार करे ताकि उन पडोसियों पर भारतका प्रभूत्व बरकरार रहे । भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति सी के बीच कोरोना प्रकोप के पहले ताल्लुकात बहुत अच्छे दिखाई देते थे ।
सन् २०१५ में तो विवादित लिपुलेक जिस में नेपाल अपना दावा करता रहा है पर भी नेपाल को दरकिनार करते हुये सी और मोदी ने व्यापार करने का सम्झौता किया । जिस पर नेपाल ने दोनो के समक्ष कडी आपत्ती की थी । इस समय नेपाल के द्वारा उस भूमि को अपने नक्से पर शामिल करने को भारत चीनी उकसावा मानता है । भारत इस दिनों भारत डोनाल्ड ट्रम्प के करीबी है । जो चीन को पसन्द नहीं है । चीन भारत को दवाव में रखने के लिये सिमा में यह सब करता दिखाई देता है । भारत की कुटनीतिक गलती यही लगता है कि उस ने दुनिया में अपनी अलग छवी बनाने की बजाये चीन अमरीका के छाँव में अपने लिये जगह ढुंडना ही उचित समझा ।
जो बिता बित गया । समय अब भी हाथ से गया नहीं है । अब सम्हलने की जरुरत है गुटनिरपेक्षता की आवश्यकता फिर से महसुस किया जाने लगा है । उस पर ध्यान देना अब भारत के लिये सार्थक हो सकता है । सार्क जैसे संगठनो का गला घोटने के बजाये क्रियाशील करना भारत और पडोसियों के लिये भी हितकर होगा ।

लद्दाख के गलवान क्षेत्र के सिमा पर भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई भयानक झडप में २० भारतीय जवानों की मौत हुई है और कई सैनिक घायल और लापता बताये गये थे । उसके बाद जून १८ को दोनो पक्ष के बीच हुई वार्ता के दौरान चीन द्वारा बन्धक बनाये गये १० भारतीय सैनिकों को रिहा कर दिया गया है । चीन की ओर भी मौतें होने का अन्देशा है लेकिन अबतक भी यकिनी तौर पर कुछ कह पाने की स्थिति नहीं है । जून १७ तारीख की ग्लोबल टाइम्स लिखता है “उल्लेखनीय है कि चीनी पक्ष ने चीनी सेना के हताहतों की संख्या का खुलासा नहीं किया, यह एक ऐसा कदम है जिसका उद्देश्य टकराव की भावनाओं को तुलना करने से बचने के लिए था” इस सरकारी कथन को सही माना जाये तो चीन अपनी ओर की सैनिक हताहती के आँकडों का खुलासा नहीं करेगा । चीन और भारत एक दुसरे को घटना के लिये जिम्मेदार बता रहे हैं । भारत की अपेक्षा चीन भारत को जिम्मेदार बनने की चेतावनी देता दिखाई देता है । अपने सैनिकों की मौत को लेकर भारत इस समय सद्मे में है । चीन की अनुदार राजनीतिक व्यवस्था के चलते खुद को लोकतान्त्रिक माननेवाले अमरीकी गठबन्धन और अन्य कुछ देश चीन की सुचनाओं को वास्तविकता से अलग मानते आ रहे हैं ।
भारतीय सैनिक के हबाले से आयी खबरों के मुताबिक २०० भारतीय सैनिकों की टुकडी पर १००० से ज्यादा संख्या में आये चीनी सैनिकों ने पत्थर और रडों से नदी में पाँच घण्टे तक आक्रमण किया । अगर एकपक्षिय रुपसे ऐसा होना निन्दनिय है । भाारतीय मिडिया सुचना के मामले में पहले से ही बदनाम है । चीन से सुचना मिलना संभव ही नहीं है तो ऐसे में सत्य को पहचान करना मुश्किल है ।

सबसे आश्चर्य करनेवाली बात है कि झडप में गोलियाँ नहीं चली जो दोनों पक्ष के बीच गोलियाँ न चलाने की बरसों पुरानी समझदारी के अनुरुप ही था । धक्कमधक्का तो सैनिक हथियार के प्रयोग के वगैर अपने दावी के मुताबिक सिमा पर बने रहने के लिये आजमाते आये हैं । जो कहीं न कहीं दोनों पक्ष की शान्ति की चाह को भी दरशाता है । पिछलीबार दोकलाम में भी यह घट चुका था । लेकिन इसबार मृत सैनिको की बडी संख्या कई प्रश्नों पर सोचने को विवश कर देता है ।
जून माह के ६ तारिख को दोनो पक्ष के कमाण्डरों के बीच वार्ता भी हो चुकी थी जिस में दोनों पक्ष तनाव को कम करने के लिए सहमत भी हो गये थे । दोनों देश सरकारी तौर पर भी सम्पर्क में होने की बात बता रहे थे तो आखिर चन्द दिनों के बाद इतना भयावह स्थिति कैसे उत्पन्न हो गया ? इसमें या तो नेतृत्व हालातों के प्रति इमानदार नही था या फिर सुचना को पहली कतार तक समय पर पहुँचाने में कमी रह गई । झडपों में राईफलों का प्रयोग न होना कहीं न कहीं इसबात की आशंका से इन्कार करता लगता है कि सैनिक अपनी जिम्मेदारी के प्रति बेखबर हो गये थे । शायद धक्कमधक्के से दोनों पक्ष के सैनिकों में एक दुसरे पक्ष के प्रति आक्रोश उत्पन्न हो गया था और दो सामुह के बीच दंगाें के शक्ल में यह दुखद घटना हुई । सचमुच अगर इस बजह से सैनिक आपे से बहार हो कर किसी भी उपरी आदेशों को अन्देखा कर रहे थे तो स्थिति और भी गम्भिर हो जाता है । सैनिको के उपर पडनेवाले मानसिक दबाव के उपर दोनों देशों को जिम्मेदारी के साथ काम करना चाहिये ।
समझने की बात यह है कि दोनों देशों के बीच सिमा विवाद आज का नहीं है । सन् १९६२ में दोनों देशों के बीच युद्ध भी हो चुका था और भारत को बुरी तरह हारना पडा था । उसके बादवाले दिनों में सिमा विवाद के बावजुद व्यापारिक सम्बन्धों को आगे बढाने की समझदारी हो गई थी । उसके बाद दशकों तक सिमा पर तनाव के बावजुद भी सैनिक हताहती नहीं हुई थी । जब सब कुछ पहले जैसा ही है तो अब आकर यह सब क्यों हो रहा है ?
चीन की बढती आर्थिक तरक्की और उसकी वैश्विक ताकत बनने महत्वाकांक्षा ने अमरीका को सकते में डाल दिया है । दूसरा एशिया के भारत चीन जापान और दक्षिण कोरिया जैसे शक्तिशाली देशों के बीच सहकार्य होने लगे तो दुनिया में अमरीका और युरोप शक्ति विहिन हो जायेगे । इसलिए अमरीका एशिया में चल रही आपसी विवादों को भड्काकर एशियाई ताकतों को खण्डिकृत करना चाहता है ।
चीन पूर्वी एशिया में कई जगह और मुद्दों में उलझनों में फँसा है । भारत के पास पडोस में भी चीन की उपस्थिति में इजाफा हुवा है । नेपाल जैसा देश भी भारत के गलत नीतियों के कारण चीन की ओर जाने को विवश हो गया है । नेपाल की स्थिति अब भी “ठहरो और देखो” की है । नेपाल जानता है कि भारत के साथ सम्बन्धों में जो सहजता है वह चीन से नहीं हो सकता है । चीन के साथ रणनीतिक साझेदार बनने पर भी उसपर कोई भारी सक्रियता नेपाल में नहीं दिखाई देता है । नेपाल भारत से सिर्फ अन्दरुनी मामले में अनावश्यक दखलन्दाजी न करने और नेपाल की सार्वभौमिकता को रोटीबेटी और बडेभाई छोटेभाई जैसे शब्दजालों में न उलझाने की प्रतिबद्धता चाहता है ।
भारत स्वयं चीन के साथ बहुक्षेत्रों में आर्थिक साझेदार है लेकिन पडोसी देशों के साथ चीन के सम्बन्धों पर क्यों चीढ है ? यह हैरत में डाल देनेवाली बात है । इसका यही मतलव हो सकता है कि भारत चाहता था कि चीन भारत के पडोसियों को भी भारत के जरिये ही व्यवहार करे ताकि उन पडोसियों पर भारतका प्रभूत्व बरकरार रहे । भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति सी के बीच कोरोना प्रकोप के पहले ताल्लुकात बहुत अच्छे दिखाई देते थे ।
सन् २०१५ में तो विवादित लिपुलेक जिस में नेपाल अपना दावा करता रहा है पर भी नेपाल को दरकिनार करते हुये सी और मोदी ने व्यापार करने का सम्झौता किया । जिस पर नेपाल ने दोनो के समक्ष कडी आपत्ती की थी । इस समय नेपाल के द्वारा उस भूमि को अपने नक्से पर शामिल करने को भारत चीनी उकसावा मानता है । भारत इस दिनों भारत डोनाल्ड ट्रम्प के करीबी है । जो चीन को पसन्द नहीं है । चीन भारत को दवाव में रखने के लिये सिमा में यह सब करता दिखाई देता है । भारत की कुटनीतिक गलती यही लगता है कि उस ने दुनिया में अपनी अलग छवी बनाने की बजाये चीन अमरीका के छाँव में अपने लिये जगह ढुंडना ही उचित समझा ।
जो बिता बित गया । समय अब भी हाथ से गया नहीं है । अब सम्हलने की जरुरत है गुटनिरपेक्षता की आवश्यकता फिर से महसुस किया जाने लगा है । उस पर ध्यान देना अब भारत के लिये सार्थक हो सकता है । सार्क जैसे संगठनो का गला घोटने के बजाये क्रियाशील करना भारत और पडोसियों के लिये भी हितकर होगा ।
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