भारत नेपाल सिमा विवाद में रोटीबेटी और बडेभाई छोटेभाई का जुमला
रोटी का सम्बन्ध कहने का मतलब है बहुसंख्यक नेपाली रोटी के लिये भारत पर आश्रित है । जबकि यह परा नेपाल के लिये पौराणिक व प्राचिन नहीं, मोटे तौर पर दो सौ साल पुराना भी नहीं है । यह विषेश कर गोरखा भर्ती से ही प्रारम्भ हुआ है । उस समय भी नेपाली दो जुन की रोटी के लिए ही भारत जाने को वाध्य थे— ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । उस समय अंग्रेज नेपाल के पहाडों मे गुरुङ मगर राई लिम्बु जैसे जनजाति और क्षेत्रिय समुदायों से युवकों को लाने के लिये “गल्लावाल” भेजते थे ।
गल्लावाल के गाँव पहुँचने की भनक मिलते ही युवा गाँव से पलायन कर जाते थे । गल्लावालों कों युवकों को लाने के लिए कडी मसक्कत करनी पडती थी । इन गल्लावाल को भरती होनेवाले युवकों की संख्या के हिसाब से अंग्रेजाें से पैसे मिलते थे । उपनिवेशकालिन भारत नेपालियों के लिये आकर्षण का खास केन्द्र नहीं था । धार्मिक, शिक्षा तथा साँस्कृतिक यात्राएँ होती थी ।
तराई में भी रोटी के लिये ही भारत में जाने की वाध्यात्मक स्थिति कभी नही थी । तराई में भारत और पहाड से आनेवालों के कारण जनसंख्या में वृद्धि के बाद ही रोटी के लिये भारत जाने की परम्परा का शुरुआत हुआ । तराई में इस प्रवृत्ती के विकास होने के पहले ही पहाडों में लाहुरे सँस्कृति का विकास हो चुका था । रोटी के आधार पर सम्बन्ध भारत के आजादी के बाद जोर पकडा था । नेपाल भारत खुली सिमा ने विषेशकर पहाडों से पलायन की परम्पराको बल मिला । लेकिन अस्सी के दशक से पुर्वोत्तर क्षेत्र में नेपालियो पर चली सरकारी दमन जो एक दशक चला । उसके बाद अब नेपालियों का भारत जाना बहुत कम हो गया है । पश्चिम नेपाल के लोगों का काम ढुँढने के लिए सिजनल तौर पर भारत जाना अब भी जारी है ।

सन् १९९० के बाद नेपाली युवा काम के खोज में खाडी और पश्चिम के देशों में जाने लगे । बदलते समय के साथ नेपाली एक राजनीतिक पहचान में सिमित न हो कर वैश्विक डायस्पोरा में तब्दिल हो रहा है । ऐसे में भारत का श्रम बाजार के प्रति नेपाली युवकों का आकर्षण घटता ही जा रहा है । युवाओं की वैश्वविक होती महत्वकांक्षा के कारण रोटी आर्जन का एक मात्र जरिया अब भारत नहीं रहा । जिसे भारत नेपाल बीच कुटनीतिक आवश्यकता के लिये भी उल्लेख किया जाये ।
बेटी का विवाह किसी देश और कुनबे के साथ वाध्यात्मक रुपसे कर देने की प्रथा मध्ययुगिन है । महाभारत में हस्तिनापुर की राजकुमारों का काशी के राजकुमारियों पर हक माना जाता था । इतिहास में जब देश पर किसी अन्य शक्तिशाली देशका खतरा रहता था तब राजा द्वारा अपनी कन्या को शक्तिशाली राजाको देकर अपनी आन को सुरक्षित करने की कई घटनायें उल्लेखित हैं । वह बेटी अपने बाप के शत्रु के यहाँ कितना दबाव झेलती होगी — सोचते ही दिल दहल जाता है । यह उस जमाने की बात है जब स्त्री को भी धन मान लिया जाता था । अब दुनिया पुरुष और स्त्रियों को हक के हिसाव से बराबर मानती है । ऐसे में बेटियो को कुटनीति की चासनी में लपेट कर सौदेबाजी करना अमानविय माना जा सकता है । बेटियाँ विवाह के लिए पुरुष की ही तरह स्वतन्त्र है । इस पर बयानबाजी करना बिल्कुल भी गलत है ।
बेटियों को भ्रुण में ही हत्या कर देना या फिर जन्म लेते ही उसे किसी समुदाय व देश की बधु व सम्पती ठान लेना लैगिक हिंसा है । ऐसी बातों उछालकर हम भारत और नेपाल के बीच सुमधुर सम्बन्ध की गगनचुम्बी इमारतों को बनवाना चाहते है तो यह शर्म की बात होनी चाहिये । इस मध्ययुगिन पुरुषवाद के कलंक को जितनी हो सके जल्दी धो डालना चाहिये ।
नेपाल में बहु बेटियों आना जाना भारत के सिर्फ किसी एक समुदाय में सिमित नहीं है । भारत के सभी हिस्से और उत्तर की ओर तिब्बत तक से भी वैवाहिक सम्बन्ध चल रहे है । बदलते समय के साथ वैवाहिक सम्बन्धो ने भी वैश्विक रुप धारण कर लिया है ।
परापूर्वकाल में अयोध्या के राजा हिन्दुओं आराध्य राम का विवाह मिथिला नरेश जनक की पुत्री सिता के साथ हुई थी । शायद इसी को लेकर बादवाले दिनो में भारत और नेपाल के सम्बन्ध के सन्दर्भ में एक प्रतीक माना जाने लगा । भारत और नेपाल के बीच धार्मिक और साँस्कृतिक समानता और तद्जन्य सम्बन्ध प्राचिनकाल से ही प्रगाढ रुपमें चली आ रही है । उसका सम्मान किया जाना चाहिये । इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता है कि नेपाल की जमिन पर भारत के कब्जे को कायम रखने के लिये इन पवित्र धरोहरों का दुरुपयोग किया जाये ।
लिपुलेक कालापानी लिम्पियाधुरा विवाद के कारण नेपाल भारत सम्बन्धों में ठण्डेपन का दौर चलरहा है । रोटीबेटी बडेभाई छोटेभाई जैसे जुमलों को नेपाल के विरुद्ध अचुक अस्त्रों के रुपमें प्रयोग किया जा रहा है । इसके साथ ही दोनों देश की साँस्कृतिक और धार्मिक समानता को भी इस मामले में जबरन खीचा जारहा है ।
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