भारत चीन सिमा तनाव से हिमालय पर आतंकका साया
भारत चीन सिमा में चल रहे तनाव का निराकरण युद्ध से कदापि नहीं पाया जा सकता । इसके लिये दोनों पक्ष को वार्ता के लिए इमानदार प्रयास करना चाहिये ।
शीतल, शान्त, विशाल हिमालय और उसके आसपास खुनी संघर्ष का डरावना आतंक दौर दशकों से चल रहा है । इन दिनों यह आतंक और गहराता दिखाई देने लगा है । बौद्धों, किरातों, हिन्दुओ और जैनोंं के लिये हिमालय धार्मिक आस्था का धरोहर रहा है । हिमालय पर्वत के आसपास मौजुद विशाल जलक्षेत्र को देखते हुये आश्चर्य लगता है । इसी आश्चर्य को प्रकृति से बढकर दैवी माननेवाले करोडों लोगों की आबादी इस क्षेत्र में हैं । दक्षिण की ओर बहनेवाली कई बडी नदियों की उत्पती हिमालय से ही होती है । जिन के सहारे शदियों से कई मानव सभ्यताओं का विकास हुवा ।
हिमालय का शान्त, पावन और मनोरम छठा पर अब तोप टैंक, मिशाईल और युद्धक विमानों की कर्कश आवाज सुनाई देने लगीं है । वहाँ की पावन धरती पर अब अधिकार जमाने की होड सी लगी है ।
इन दिनों लद्दाख क्षेत्र में चीन और भारत के बीच तनातनी चल रही है । गलवान घाटी में जून १५ तारीख को दोनों देशों के सैनिकों के बीच हुई झडपों में २० भारतीय सैनिको की जानें गयी । चीनी सैनिकों की भी मौत होने का अंदेशा है ।
अब दोनाें देश उस क्षेत्र में बडे पैमाने पर यूद्ध के लिये अपनी सैनिक साजो सामान बडे तादात पर तैनात कर रहे हैं । किसी भी समय वहाँ भयानक जंग छिडने के संकेत दिखाई दे रहे हैं । दोनों देश अपनी ताकतों का बडचढ कर बखान कर रहें हैं जैसे एक दूसरे को मच्छर की तरह मसलने की ताकत रखते है । अब यहाँ शान्ति के स्वर कहीं सुनाई नहीं दे रहा है ।
सबसे बडी मूर्खता तो यह है कि उस क्षेत्र में अबतक दोनों पक्ष को स्वीकार होने लायक सिमा की लकीर कभी खिंची ही नहीं गई है । सैद्धान्तिक रुपसे अब तक कभी भी सहमति जुटाने की इमानदार कोशिसें की ही नहीं गयी । जब कहाँ से कहाँ तक किस की जमीन है यकिन ही नहीं हो पाया है तों किस आधार पर जंग करने को आमादा हैं ये देश ? इसका मतलब तों सिर्फ यूद्ध के लिए ही यूद्ध लडना है । अगर यूद्ध जीत कर समस्या कोे समाधान करने की सोच है तो चीन सन् १९६२ में ही जंग जीत चुका है । उससे भी तो समाधान नहीं निकल सका, यह सोचने की बात है । इसके लिये दोनों के बीच संवाद की आवश्यकता को कतई नकारा नहीं जा सकता ।
मानलें कि अब होनेवाले जंग में भारत ने पूरे तिब्बत तक झण्डे गाड दिये या फिर चीन ने कश्मिर तक भारत को पिछे आने को मजबूर कर दिया तो हारनेवाला चूप कैसे बैठ सकता है । चीन ने १९६२ तत्कालिन नेफा क्षेत्र को लाँघते हुये असम के तेजपुर आ पहँुचा और लीपुलेक इलाके में भारतीय सेना को पिछे हटते हुये नेपाल के कालापानी इलाके में शरण लेने के लिए मजबुर कर दिया था । फिर भी समस्या का समाधान नही हो सका । अक्साई चीन के क्षेत्र में कितना जमीन किसके पास कितना है सभी जानते हैं । उसके बाद फिर एकबार जंग लडकर और एक नई वास्तविक नियन्त्रण की लकीर खींच कर संतोष कर लिया जायेगा ?
अभी जो बारबार वास्तविक नियन्त्रण रेखा का जिक्र किया जाता है वह अधिकांश १९६२ में भारत के हार जाने के बाद चीनी सैनिकों के कब्जे के आधार पर तय है । जिसे न भारत मानता है न चीन को संतोष है । ऐसे में दोनों के बीच छेडखानी चलना लाजिमि है । असली मुद्दों को छोड कहाँ भटक रहे हैं ये दो महाबली । वार्ता के जरिये कुछ ले देकर समाधान ढुंढने के अलावा कोई दुसरा चारा दोनाें के पास नहीं है । भारत चीन पर जितना भी विश्वासघात का प्रचार करे उस में कोई तुक नहीं है ना ही चीन का आरोप कि भारत पर अमरीका की तरफदारी करता है की कोई सान्दर्भिकता है । पडोसी जैसे भी हो कभी बदले नहीं जा सकते ।
जब सन् २०१९ अगस्त ५ में भारतीय संविधान में कश्मिर के लिए प्रयुक्त विषेश प्रावधान को हटाया गया और कुछ दिन बाद एक संशोधित नक्शा जारी किया गया । भारत के मंत्री ने अब भारत के सभी दावे की भूमि पर हक जताते हुये एक ईन्च भी जमीन न छोडने का बयान दिया था । उस पर चीन ने आपत्ती जताई थी । अभी जो हो रहा है संभवतः उसी का परिणाम है ।
भारतीय राजनीतिज्ञ सुधिन्द्र कुलकर्णी जो सन् १९९६ में माक्र्सवादी कम्यूनिष्ट पार्टी को छोडकर भारतीय जनता पार्टी में सम्मिलित हो गये और अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में उनके सलाहकारों में थे और बाद में भाजपा से भी अलग हो गये हैं— ने हाल ही में एक मिडिया से कहा है कि चीन ने भारत के साथ सिमा के मामले को निबटाने के लिये तीन बार प्रस्ताव रखा था । शायद भारत की ओर से उपेक्षा कर गलती हो गई थी ।
सन् १९५४ मई में चाउ एनलाई ने भारत का दौरा किया था । चीन ने तिब्बत को अपने मे विलय कर चुका था । जिससे नेपाल से लगी सरहद को छोड कर बाँकी समूचे उत्तर की तकरीवन ३४०० किलो मीटर से अधिक भारत की सिमा चीन से जा लगा । उन्होनें भारत के साथ पन्चशील की सन्धि पर हस्ताक्षर किये जिसके आधार पर दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को तय होना था । इसबार सिमा पर चीन ने वार्ता करना चाहता था । परन्तु सम्भव न हो सका । क्योंकि दोनों के बीच सिमा को लेकर काफी मत भिन्नताएँ थी । सन् १९६० में चाउ एनलाई दूसरीबार भारत आये । इसबार उन्होने पूरब की सिमा में भारत के दावे को मानने के साथसाथ पश्चिम में भारत को चीन के दावे को स्वीकार करने प्रस्ताव रखा था । लेकिन भारत ने इसे मानने से साफ इन्कार कर दिया । इसके बाद दोनों में मनमुटाव बढता गया । सन् १९६२ में भारत चीन युद्ध के कुछ समय पहले एक सोवियत कुटनीतिक के भारत और चीन के सिमा समस्या पर पुछे जाने पर चाउ एनलाई ने सब कुछ खत्म होने का दो टुक जवाब दिया था । इससे यह पता चलता है कि सोवियत संघ भी चाहता था कि यह सिमा विवाद का निबटारा हो ।
सन् १९६१ में चीन ने नेपाल के साथ भी सन्धि की । नेपाल के साथ सिमा वार्ता में चीन इतनी उदारता से पेश आया था कि नेपाल नरेश और प्रधानमंत्री आश्चर्यित हो गये थे । सिमा के मसले पर भारत चीन की आपसी मतभेद को देख सशंकित नेपाल परिणाम से विल्कुल संतोष था । नेपाल के साथ सिमा के मसले पर नरमी को देखते हुये यह कयाश भी लगाया जाता रहा है कि उस समय भारत ने कुछ कुटनीतिक प्रयासों को आगे जारी भी रखा होता तो बात बन भी सकती थी । चीन में देङ शियाओ पिङ के सत्ता में आने के बाद चीन ने अपने पुराने दावे से थोडा पिछे हटते हुये एकबार फिर अक्साई चीन के कुछ हिस्से को भारत को देने की पेशकश भी की थी परन्तु भारत इसके लिये तैयार नहीं था । दुसरे ही साल चीन और भारत के बीच जंग छिड गया । उस के बाद दोनों के बीच दुश्मनी का दौर शुरु हो गया ।
कुछ साल बाद फिर दोनों देशों में सिमा विवाद को एक ओर छोडकर आर्थिक सम्बन्धों को आगे ले जाने की सहमती बनी । जिसके तहत दोनों में काफी निकटता का आभाष होने लगा । आश्चर्य की बात है कि अन्य क्षेत्र की बढती मित्रता के बीच क्यों दोनों ने उसी अन्दाज में सिमा विवाद को समाधान करने में क्यों नजर अन्दाज किया ।
अमरीका की गिरती और चीन की बढती अर्थव्यवस्था के कारण दोनों में तीव्र प्रतिस्पर्धा का हालिया दौर शुरु हो गया । अमरीका ने चीन के खिलाफ उसके खराब सम्बन्धोंवाले पारम्परिक देशों को अपने ओर आकर्षित करना शुरु किया । चीन ने भी कभी सिमा के मसले पर भारत के साथ नरमी दिखाना आवश्यक नहीं समझा । भारत के अमरीका के साथ बढते रिश्तों को चीन शंका के दृष्टि से ही देखता रहा है ।
भारत और पाकिस्तान की तनातनी भी इसी क्षेत्र में पहले से ही है । भूटान के साथ भी चीन के सिमा विवाद चलरहे हैं । अब आकर इस क्षेत्र में भारत के साथ पहले से चल रहे सिमा विवाद में नेपाल के साथ भी तनाव बढ रहा है । इसतरह हिमालय क्षेत्र अशान्त हो चला है ।
सबसे असली प्रश्न यही है कि विना किसी सिमा निर्धारण के कबतक ये देश अपने सैनिकों को अपने अहंकार के बेदी पर मरवाते रहेंगे ?
अब दोनाें देश उस क्षेत्र में बडे पैमाने पर यूद्ध के लिये अपनी सैनिक साजो सामान बडे तादात पर तैनात कर रहे हैं । किसी भी समय वहाँ भयानक जंग छिडने के संकेत दिखाई दे रहे हैं । दोनों देश अपनी ताकतों का बडचढ कर बखान कर रहें हैं जैसे एक दूसरे को मच्छर की तरह मसलने की ताकत रखते है । अब यहाँ शान्ति के स्वर कहीं सुनाई नहीं दे रहा है ।
सबसे बडी मूर्खता तो यह है कि उस क्षेत्र में अबतक दोनों पक्ष को स्वीकार होने लायक सिमा की लकीर कभी खिंची ही नहीं गई है । सैद्धान्तिक रुपसे अब तक कभी भी सहमति जुटाने की इमानदार कोशिसें की ही नहीं गयी । जब कहाँ से कहाँ तक किस की जमीन है यकिन ही नहीं हो पाया है तों किस आधार पर जंग करने को आमादा हैं ये देश ? इसका मतलब तों सिर्फ यूद्ध के लिए ही यूद्ध लडना है । अगर यूद्ध जीत कर समस्या कोे समाधान करने की सोच है तो चीन सन् १९६२ में ही जंग जीत चुका है । उससे भी तो समाधान नहीं निकल सका, यह सोचने की बात है । इसके लिये दोनों के बीच संवाद की आवश्यकता को कतई नकारा नहीं जा सकता ।
मानलें कि अब होनेवाले जंग में भारत ने पूरे तिब्बत तक झण्डे गाड दिये या फिर चीन ने कश्मिर तक भारत को पिछे आने को मजबूर कर दिया तो हारनेवाला चूप कैसे बैठ सकता है । चीन ने १९६२ तत्कालिन नेफा क्षेत्र को लाँघते हुये असम के तेजपुर आ पहँुचा और लीपुलेक इलाके में भारतीय सेना को पिछे हटते हुये नेपाल के कालापानी इलाके में शरण लेने के लिए मजबुर कर दिया था । फिर भी समस्या का समाधान नही हो सका । अक्साई चीन के क्षेत्र में कितना जमीन किसके पास कितना है सभी जानते हैं । उसके बाद फिर एकबार जंग लडकर और एक नई वास्तविक नियन्त्रण की लकीर खींच कर संतोष कर लिया जायेगा ?
अभी जो बारबार वास्तविक नियन्त्रण रेखा का जिक्र किया जाता है वह अधिकांश १९६२ में भारत के हार जाने के बाद चीनी सैनिकों के कब्जे के आधार पर तय है । जिसे न भारत मानता है न चीन को संतोष है । ऐसे में दोनों के बीच छेडखानी चलना लाजिमि है । असली मुद्दों को छोड कहाँ भटक रहे हैं ये दो महाबली । वार्ता के जरिये कुछ ले देकर समाधान ढुंढने के अलावा कोई दुसरा चारा दोनाें के पास नहीं है । भारत चीन पर जितना भी विश्वासघात का प्रचार करे उस में कोई तुक नहीं है ना ही चीन का आरोप कि भारत पर अमरीका की तरफदारी करता है की कोई सान्दर्भिकता है । पडोसी जैसे भी हो कभी बदले नहीं जा सकते ।
जब सन् २०१९ अगस्त ५ में भारतीय संविधान में कश्मिर के लिए प्रयुक्त विषेश प्रावधान को हटाया गया और कुछ दिन बाद एक संशोधित नक्शा जारी किया गया । भारत के मंत्री ने अब भारत के सभी दावे की भूमि पर हक जताते हुये एक ईन्च भी जमीन न छोडने का बयान दिया था । उस पर चीन ने आपत्ती जताई थी । अभी जो हो रहा है संभवतः उसी का परिणाम है ।
भारतीय राजनीतिज्ञ सुधिन्द्र कुलकर्णी जो सन् १९९६ में माक्र्सवादी कम्यूनिष्ट पार्टी को छोडकर भारतीय जनता पार्टी में सम्मिलित हो गये और अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में उनके सलाहकारों में थे और बाद में भाजपा से भी अलग हो गये हैं— ने हाल ही में एक मिडिया से कहा है कि चीन ने भारत के साथ सिमा के मामले को निबटाने के लिये तीन बार प्रस्ताव रखा था । शायद भारत की ओर से उपेक्षा कर गलती हो गई थी ।
सन् १९५४ मई में चाउ एनलाई ने भारत का दौरा किया था । चीन ने तिब्बत को अपने मे विलय कर चुका था । जिससे नेपाल से लगी सरहद को छोड कर बाँकी समूचे उत्तर की तकरीवन ३४०० किलो मीटर से अधिक भारत की सिमा चीन से जा लगा । उन्होनें भारत के साथ पन्चशील की सन्धि पर हस्ताक्षर किये जिसके आधार पर दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को तय होना था । इसबार सिमा पर चीन ने वार्ता करना चाहता था । परन्तु सम्भव न हो सका । क्योंकि दोनों के बीच सिमा को लेकर काफी मत भिन्नताएँ थी । सन् १९६० में चाउ एनलाई दूसरीबार भारत आये । इसबार उन्होने पूरब की सिमा में भारत के दावे को मानने के साथसाथ पश्चिम में भारत को चीन के दावे को स्वीकार करने प्रस्ताव रखा था । लेकिन भारत ने इसे मानने से साफ इन्कार कर दिया । इसके बाद दोनों में मनमुटाव बढता गया । सन् १९६२ में भारत चीन युद्ध के कुछ समय पहले एक सोवियत कुटनीतिक के भारत और चीन के सिमा समस्या पर पुछे जाने पर चाउ एनलाई ने सब कुछ खत्म होने का दो टुक जवाब दिया था । इससे यह पता चलता है कि सोवियत संघ भी चाहता था कि यह सिमा विवाद का निबटारा हो ।
सन् १९६१ में चीन ने नेपाल के साथ भी सन्धि की । नेपाल के साथ सिमा वार्ता में चीन इतनी उदारता से पेश आया था कि नेपाल नरेश और प्रधानमंत्री आश्चर्यित हो गये थे । सिमा के मसले पर भारत चीन की आपसी मतभेद को देख सशंकित नेपाल परिणाम से विल्कुल संतोष था । नेपाल के साथ सिमा के मसले पर नरमी को देखते हुये यह कयाश भी लगाया जाता रहा है कि उस समय भारत ने कुछ कुटनीतिक प्रयासों को आगे जारी भी रखा होता तो बात बन भी सकती थी । चीन में देङ शियाओ पिङ के सत्ता में आने के बाद चीन ने अपने पुराने दावे से थोडा पिछे हटते हुये एकबार फिर अक्साई चीन के कुछ हिस्से को भारत को देने की पेशकश भी की थी परन्तु भारत इसके लिये तैयार नहीं था । दुसरे ही साल चीन और भारत के बीच जंग छिड गया । उस के बाद दोनों के बीच दुश्मनी का दौर शुरु हो गया ।
कुछ साल बाद फिर दोनों देशों में सिमा विवाद को एक ओर छोडकर आर्थिक सम्बन्धों को आगे ले जाने की सहमती बनी । जिसके तहत दोनों में काफी निकटता का आभाष होने लगा । आश्चर्य की बात है कि अन्य क्षेत्र की बढती मित्रता के बीच क्यों दोनों ने उसी अन्दाज में सिमा विवाद को समाधान करने में क्यों नजर अन्दाज किया ।
अमरीका की गिरती और चीन की बढती अर्थव्यवस्था के कारण दोनों में तीव्र प्रतिस्पर्धा का हालिया दौर शुरु हो गया । अमरीका ने चीन के खिलाफ उसके खराब सम्बन्धोंवाले पारम्परिक देशों को अपने ओर आकर्षित करना शुरु किया । चीन ने भी कभी सिमा के मसले पर भारत के साथ नरमी दिखाना आवश्यक नहीं समझा । भारत के अमरीका के साथ बढते रिश्तों को चीन शंका के दृष्टि से ही देखता रहा है ।
भारत और पाकिस्तान की तनातनी भी इसी क्षेत्र में पहले से ही है । भूटान के साथ भी चीन के सिमा विवाद चलरहे हैं । अब आकर इस क्षेत्र में भारत के साथ पहले से चल रहे सिमा विवाद में नेपाल के साथ भी तनाव बढ रहा है । इसतरह हिमालय क्षेत्र अशान्त हो चला है ।
सबसे असली प्रश्न यही है कि विना किसी सिमा निर्धारण के कबतक ये देश अपने सैनिकों को अपने अहंकार के बेदी पर मरवाते रहेंगे ?
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Thank you.