भारत नेपाल सिमा विवाद में मिडिया पर उठा सवाल

क्या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की कोई सिमा नहीं होती है ? पत्रकारिता से तो विश्वव्यापि मान्यता के आधार पर चलने की आपेक्षा की जाती है ।



इनदिनों भारत और नेपाल के बीच कालापानी लिपुलेक लिम्पियाधुरा के स्वामित्व को लेकर चले विवाद के कारण तनाव चल रहा है । अक्सर ऐसा कहा जाता रहा है कि भारत के आजादी के बाद दोनों देशों के बीच पहले सुवर्णकालिन सम्बन्ध रहे थे और आज आकर ही इस में खराबी आई है । हकिकत में ऐसा नहीं है । दोनों देशों के बीच आम लोगों के आध्यात्मिक और साँस्कृतिक सम्बन्ध आपस में सदा से गहरे रहे हैं लेकिन राजनीतिक सम्बन्ध उतार चढावपूर्ण चल रहे हैं । आज का तनाव भी उसी का एक नवीनतम एपिसोड मात्र है ।



 नेपाल सन् २०१५ को छोडकर १९७० और १९८९ में भी भारतीय नाकेबन्दी को झेल चुका है । पुरे तौर पर भारत पर आश्रित नेपाल पर क्या बिता था, नेपाल की तीन पीढियाँ ही बता सकती है । आज की ही तरह तब भी सिमा की समस्याऐं थी । चीनद्वारा तिब्बत पर अधिकार और भारतद्वारा सिक्कीम पर अधिकार और पाकिस्तान के विभाजित कर देने के बाद इन दो बडे पडोसियों के  प्रति बीच में अवस्थित छोटा देश नेपाल आशंका के लम्बे दौर से गुजरता रहा । इन परिस्थितियों में दोनों के बीच कैसा स्वर्णकाल रहा होगा — सोचा जा सकता है । फर्क सिर्फ इतना है कि नेपाल तब सिर्फ फरियाद करता था अब वह मुद्दे के रुपमें उठा रहा है जो भारत को अप्रत्याशित सा लग रहा है ।



बिते समय में विवादों के समय बौद्धिक वर्ग और मिडिया का एक जिम्मेदार तबका तथ्य और सत्य को पकडते हुये सुचना प्रवाहित करने की कोशिस करता था । आनेवाले दिनों में विवादों से उत्पन्न हो सकनेवाली समस्याओं को लेकर सतर्क करने की कोशिस भी करता था । जो आज भी किसी न किसी रुपमें चल भी रहा है । बाँकी अपने देश के पक्ष में नर्म और गर्म विचारों को प्रवाहित करते थे । यह सब इसबार भी चल ही रहा है । सोसियल मिडया के नवीनतम विकास ने सुचना और भावना को अभिव्यक्त करने का एक नयाँ जरिया दिया है । उस में आम लागों की व्यक्तिगत टिप्पणियाँ आम भावना को परखने में तो सहायक हो सकती है लेकिन हकिकत से रुबरु होने की संभावना बहुत कम भी हो सकती है । ऐसा व्यवहार में देखा जाता है । सिमा के विवाद पडोसियों के ही बीच होते हैं परन्तु उसे समय रहते इमानदारी के साथ निबटा लेना चाहिये ।


 इसवार दोनों देशों के बीच चले विवाद में एकबात जरुर फर्क नजर आया है । भारतीय एक प्रतिष्ठित समाचार च्यानल ने हालिया विवाद को जोडते हुये जो भिडियो प्रसारित किया उसने कई सवाल खडे कर दिये हैं । तथ्यों को तोडमरोड करना या अतिरंजित करना तो कमोबेश दोनों ओर से चल ही रहा है परन्तु बिल्कुल निकृष्ट अन्दाज में प्रस्तुत करना यह पहलीबार हो रहा है । वैसे उस सामग्री के लिये प्रस्तोता ने माफी माग ली है फिर भी सवाल अभी भी हरे ही हैं । क्या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की कोई सिमा नहीं होती है ? उस पर पत्रकारिता से तो विश्वव्यापि मान्यता के आधार पर चलने की आपेक्षा की जाती है । नेपाल भारत के बीच एक मिशन के रुपमें इसे दुरुपयोग करने से बचना ही आज की आवश्यकता है । सरकारें आपस में संवाद करें या न करे मिडिया सत्य के पडताल को लेकर संवाद कर सकती है ।        
       

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