नेकपा में गुटों का टकराव : लडाईं मोछों की
सत्तारुढ नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी का अन्दरुनी विवाद से अगर प्रधानमंत्री केपी ओली को सहमती के बगैहर सत्ता और पार्टी के अध्यक्ष से और प्रचण्ड को अध्यक्ष पद से हटाया जाता है तो नेपाल में कम्युनिष्टों की साख में गिरावट आने के संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता ।
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली की बर्खास्त होने की संभावनाआें को लेकर भारत के विभिन्न स्थानों से कुछ लोगों ने व्यंग्यात्मक और कुछ ने मामले पर जिज्ञासाएं हमें भेजी हैं । कुछ की सहज जिज्ञासा है कि भारतीय संचार माध्यमों ने भारतकी भूमि पर नेपालका दावा ठोकने के कारण प्रधानमंत्री ओली की अपनी ही पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री और पार्टी के अध्यक्ष्य पद से बर्खास्त करने की खबरें बहुत पहले कई बार चला चुकीं थीं, परन्तु ऐसा अबतक क्यों नहीं पाया है ? कुछ लोगों नेपाली प्रधानमंत्री को भारत विरोधी और चीन के ईशारे पर चलनेवाले सख्स के रुपमें चित्रित करते हुये उनके प्रति आक्रोश व्यक्त किये हैं । उनके अनुशार ओली को तुरन्त पद से हटाना चाहिये । आज हम इन्ही जिज्ञासाओं के आसपास की परिस्थितियों को जानने का प्रयास करेंगे ।
काठमाण्डो में कुछ समय से नेपाल कम्युनिष्ट पाटी की लबहुमतवाली मौजूदा सरकार गिराने और बचाने की सियासी रस्साकस्सी जोरों पर चल रह है । हैरत में डाल देनेवाली बात है कि सरकार गिराने के लिए सत्तारुढ दल नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी के ही दूसरे अध्यक्ष कामरेड प्रचण्ड और वरिष्ट नेता माधव नेपाल और झलनाथ खनाल की अलग अलग अन्दरुनी धडें एकसाथ खडे हैं ।
विरोधियों का आरोप है कि प्रधानमंत्री ओली पार्टी के अन्य नेताओं को दरकिनार कर स्वेच्छाचारी ढंग से सरकार चला रहे हैं और वे सरकार ढंग से चलाने में असफल हो गये हैं । अन्य तीन धडों की गठजोड के कारण पार्टी के सचिवालय, स्थाई समिति और केन्द्रीय में भी वे इस समय अल्पमत में दिखाई दे रहे हैं । विरोधियों का दावा यहीं तक नहीं था वे इससे भी आगे बढकर प्रधानमंत्री और पार्टी के अध्यक्ष पद दोनों से अचानक ओली की इस्तीफे की माँग करने लगे । पेचीदगी यहीं से बढीं । फिर भी ओली तमाम दबाव के बावजूद भी विल्कुल टस से मस नहीं हो रहे हैं । प्रधानमंत्री ओली कईबार पार्टी की बैठकों में अनुपस्थित भी रहते आये हैं । फिर भी उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है । ओली ने बहुमत को खुली चुनौती दी है कि वे सामना करने को तैयार हैं । अभी भी संकट टलने के आसार नहीं है फिर भी बितते समय के साथ विरोधियों के स्वर में कुछ नरमी व दुविधा दिखाई देने लगी है ।
संसदीय लोकतन्त्र में पार्टी में किसी नेता के बहुमत के खो देने पर उसके पास इस्तीफे के अलावा विल्कुल दूसरा विकल्प नहीं बचता है । तो ओली क्यों टस से मस नहीं है ? ओली को बर्खास्त रने के लिये पार्टी का बहुमत जमावडा क्यों हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है ?
ओली टस से मस क्यों नहीं हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिये कुछ साल पिछे झाँकना आवश्यक है । तकरीबन साढे दो साल पहले जब नेपाल में संसदीय चुनाव की तैयारी चल रही थी तब तत्कालिन नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी एमाले जिस का नेतृत्व केपी ओली कर रहे थे और माओवादी केन्द्र जो विगत में दश साल हिंसात्मक आन्दोलन के बाद संसदीय राजनीति में आई थी जिसका नेतृत्व कामरेड प्रचण्ड कर रहे थे, ने अचानक चुनाव मे सहकार्य करने का फैसला किया था । एक दूसरे के कट्टर आलोचक रहे इन दो कम्युनिष्ट पार्टियों के बीच का सहकार्य पार्टी एकिकरण तक पहुँचा और नई पार्टी नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी बनी । यह सब इतने आनन फानन में हुआ कि लोगों को विश्वास करना कठिन हो गया था । लेकिन यह एक हकिकत ही था ।
नई पार्टी के केपी ओली और प्रचण्ड दो अध्यक्ष बने और पार्टी के आनेवाले एकता महाधिवेशन तक दोनों अध्यक्ष के रजामन्दी से ही पार्टी का संचालन करने की विधि तय की गई । सहमति के मुताबिक दोनों अध्यक्षों ने पुरानी दोनों पार्टियो से सचिवालय, स्थाई समिति और केन्द्रिय समिति में नेताओं को नियुक्त किया । दोनों अध्यक्ष को बारी बारी से साढे दो साल प्रधानमंत्री बनने की भी सहमति की गई थी जिसको बाद में दोनों की रजामन्दी से पाँच साल तक ओली को ही प्रधानमंत्री और प्रचण्ड को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनने का प्रावधान रखा गया । इस व्यवस्था को बदलने के लिये पार्टी का अधिवेशन का होना अनिवार्य है जो अबतक नहीं हो पाया है । यह एक विषेश परिस्थिती के लिये ही था । चुनाव में नई पार्टी ने भारी जित हासिल की और केपी ओली प्रधानमंत्री बने ।
वैसे प्रधानमंत्री ओली की सरकार चलाने के तरीकों को लेकर पार्टी में पहले ही कुछ अनबन होने लगा था । भारत ने जब लिपुलेक क्षेत्र में इकतरफा रास्ता बनाकर उद्घाटन किया और उसके प्रतिवाद में नेपाल ने अपने दावे की जमीन को नक्शे में न केवल समावेश किया वल्कि नक्शे को पूर्ण बहुमत के साथ संसद से पास भी कर दिया उसके कुछ दिन ही बाद प्रचण्ड और दो अन्य गुटों ने खुल कर ओली को प्रधानमंत्री ही नहीं पार्टी के अध्यक्ष पद से भी हटाने की मुहिम तेज कर दी । इस समय भारत का ओली के प्रति असंतुष्टी के साथ ओली विरोधी खेमें की मुहिम को भी जोड कर आम लोगों ने देखा । इससे ओली को और लोकप्रियता मिली ।
प्रधानमंत्री ओली का कहना है कि मेरी रजामन्दी के बगैर दूसरे अध्यक्ष प्रचण्ड का दूसरे नेताओं को साथ लेकर एकपक्षीय कार्य करना सहमती के खिलाफ है । उनके इस तर्क में कुछ वजन दिखाई देता है । वैसे प्रधानमंत्री की कार्य शैलि और व्यवस्थापन को लेकर कई खामियाँ है फिर भी प्रधानमंत्री ओली को नेपाल में एक निर्भिक और हिम्मतवाले नेता के रुपमें देखा जाता है जिसने नेपाल को लेकर भारत की गलत नीतियों का खुल कर विरोध किया।
प्रचण्ड की वाध्यता क्या है ?
कामरेड प्रचण्ड नेपाली राजनीति के एक करिस्माई नेता हैं जिनके आसपास विगत दो दशक नेपाली राजनीति घुमता रहा । नेपाल में गणतन्त्र, समावेशीता और संघीयता जैसे मुद्दों को उठाने में उनकी केन्द्रिय भूमिका रही । इन मुद्दों की सफलता पर ही पूर्व माओवादी हिंसात्मक संघर्ष और प्रचण्ड का परिक्षण हो सकेगा । अबतक इन मुद्दों पर परिक्षण ही हो रहा है और इनकी सफलता अभी भी निश्चित नहीं हो पाया है । इसके लिये नेकपा की इस सरकार का भी सफल होना भी जरुरी है ।
प्रचण्ड का संसदीय राजनीति में आगमन आँधी—तुफान की भाँती हुआ । उन पर नेपाली जनता की आशा टिकी थी । परन्तु वे इसे बरकरार नहीं रख पाये । शान्ति प्रकृया में आने से लेकर एमाले के साथ पार्टी एकिकरण तक उनकी नेतृत्ववाली माओवादी पार्टी कई धडों में विभाजित हो गया । वे इसे बचा नहीं पाये । वास्तव में प्रचण्ड के नेतृत्व में माओवाद पार्टी से कहीं अधिक एक आन्दोलन मात्र था जो स्वयं कहीं किसी के लिये प्रयोग हुआ तो कहीं उसने दूसरों को मोहरे के रुपमें उपयोग किया । इस चरीत्र ने उन्हे कभी स्थिर रहने ही नहीं दिया । इस अस्थिरता को वे निरन्तरता में क्रमभंगता के रुपमें स्पष्ट करने की कोशिस करते हैं । ओली और उनके बीच के वर्तमान में चल रहे अन्तर विरोध को वरिष्ट नेता माधव नेपाल और झलनाथ खनाल का उन्हे साथ मिला और ओली के प्रति विरोध को बल मिला । एक सवाल इस समय भी उठ खडा हुआ है कि वे क्रमभंगता का एक और आजमाईश की तैयारी में लगे हैं ?
क्या सत्तारुढ पार्टी विभाजित हो सकती है ?
विगत में नेपाल में ज्यादातर मुख्य दलों से विभाजित धडों को जनता द्वारा तिरस्कृत होते देखा गया है । इसलिये पार्टी से स्वयं को अलग करने के लिये प्रचण्ड और ओली दोनों तैयार नहीं है । हालिया विवाद में पूर्व एमाले के कई लोग प्रचण्ड के समर्थन में खडे दिखाई दे रहे हैं तो कुछ प्रचण्ड के निकट लोग ओली के समर्थन में खुल कर लगे हैं । शक्तिशाली दल के रुप में उभरा नेकपा का विभाजन पार्टी कार्यकर्ताओं की बडी पाँत और आम समर्थक भी कतई नहीं चाहता है । यह दबाव को झेलना दोनों में से किसी को भी सहज नहीं होगा ।
इन परिस्थितियों में ओली प्रचण्ड से कहीं अधिक सुविधा की स्थिति में हैं । उन्होने खुली चुनौती देते हुये कहा है कि उन्हे प्रधानमंत्री से हटाने के लिये चुनाव तक और अध्यक्ष से हटाने के लिये पार्टी के महाधिवेशन तक इन्तजार करना होगा । अब आकर विवादों को निबटाने की जिम्मेदारी फिर से दोनों अध्यक्षों को दिया गया है । इसतरह विवादों के वावजूद भी पार्टी का विभाजन सहज नहीं लगता । सभी जानते हैं कि विभाजन किसी की भी हित में नहीं होगा ।
हमारे भारतीय पाठकों की जिज्ञासा अपनी जगह है, इधर नेपाल में सत्ता संघर्ष का चरीत्र इतना संगीन होते हुये भी इतना तरल है कि उसपर कुछ कह पाना बहुत मुश्किल है । नेपाली राजनीतिक दलों कि एक विषेशता रही है कि कट्ट राजनीतिक दुश्मन भी सतह पर न सही उसके नीचे किसी न किसी तरह गुफ्तगू कर रहे होते हैं । सत्तारुढ नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी में भी ऐसा ही कुछ चल रहा है । फिर भी कोई निष्कर्ष नहीं निकल आया है । इसका यही मतलब निकाला जा सकता है कि मामला आसान नहीं है । वैसे एकबात साफ है कि यह कोई सैद्धांतिक टकराव नहीं है । बिल्कुल मोछों की लडाई है । पार्टी के शिर्ष नेताओं के बीच ही समस्या है ।
यह समझना बिल्कुल गलत है कि अकेले ओली ही सिमा को लेकर भारत के खिलाफ निकल पडे हैं । सतह में कहीं नहीं दिखता है कि भारत के खिलाफ नक्शे को प्रकाशन करने के कारण सत्तारुढ दल का असंन्तुष्ट खेमा प्रधानमंत्री पद से ओली को हटाने की कोशिसें कर रहा है । पार्टी में उनके विरोधी नेताओं का तो यहाँ तक दावा है कि भारत की नेपाल के जमीन पर कब्जे के खिलाफ हम भी शामिल हैं । हँ प्रधानमंत्री के रुपमें केपी ओली ने इसका नेतृत्व किया है । एक बात जरुर शंदेह उत्पन्न करता है कि प्रधानमंत्री ओली जब कालापानी लीपुलेक और लिम्पियाधुरा को नेपाल के नक्शे में शामिल कर भारत के निशाने पर आये हैं तब उनकी पार्टी के ही विरोधी नेता ओली को प्रधानमंत्री और अध्यक्ष पद से हटाने की जोरदार मुहिम पर क्यों उतर आये हैं ?
पिछली बार जब ओली प्रधानमंत्री थे तब भारत ने नेपाल पर नाकाबन्दी किया था और अधिकाँश नेपालियों का मानना है कि ओली ने उसका डटकर सामना किया था । इन हालातों में ओली ने चीन के साथ कई महत्वपूर्ण सन्धियाँ की जिससे भारत की नेपाल पर पकड कमजोर पडने के आसार दिखाई देने लगे । इससे नेपाल में ओली की लोकप्रियता काफी बढ गई और उन्होंने चुनाव में भारी सफलता प्राप्त किया । कई लोगों का मानना है कि कभी भारत के समर्थक मानेजानेवाले केपी ओली को नये रुपमें अवतरित होने के लिए भारत की गलत नेपाल नीति ही दोषी है ।
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