जाको राखे साईं -------------------------------------------------- कोरोना संक्रमण के दौर में बच्चों के प्रति सजगता आवश्यक है
कोविद 19 के संक्रमण के दौरान बच्चों की दिनचर्या भी प्रभावित हो गई है । माता पिता तथा अविभावकों को उनका स्वास्थ्य और दैनिकी व्यवस्थित करने में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ।
कोविद १९ का दूसरा दौर दक्षिण एशिया में फिर से चल पडा है । भारत इस समय सब से ज्यादा प्रभावित है । उसके पास पडोेस में भी महामारी का यह दौर चलने लगा है । उसके साथ टीवी, अखबार और सोसल मिडिया पर डरावने खबरों की बाढ शुरु हो गयी हैं । कोरोना से कहीं अधिक इन खबरों की सनसनी से लोग खौफ में हैं । पहले दौर से उबरते जनजीवन पर फिर से कोहरा छाने लगा है । सोसल मिडिया में अधिक लोगों को आकर्षित करने के लिए कोरोना महामारी के पहले दौर की पुरानी, सबसे भयावह दृश्य को चुन कर डाला जा रहा है । गाँव के चौक चबूतरों से लेकर शहर के गलि मुहल्लों तक में एक से अधिक लोग इकट्ठा होते ही कोरोना की दहशत पर बात करते दिखाई देने लगे हैं । चारों ओर कोरोना के प्रभाव को यथार्थ से कहीं अधिक बढाचढा कर लोगों को आतंकित किया जा रहा है । इस महामारी से बचने की तौर तरीकों से लोगों को सूचित करने की आवश्यकता को कभी भी प्राथमिकता में नहीं लाया जा रहा है ।
कुछ दिन पहले एक मित्र ने सोसियल मिडिया में इसी बात की टिप्पणी की । उनकी इस टिप्पणी ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । हालात जो हैं उससे रुबरु होने का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है । उसपर उपर से त्रास का लेपन क्यों जरुरी है ? इसलिए कि ग्ल्यामर से कहीं अधिक दहशत का बाजारीकरण आसान होता है ? दयनीयता को दया और मानवियता से न जोडते हुये बाजार से जोडा जाने लगे तो समझना चाहिए कि मानवता दम तोड रहा है । यह सोच इतना विकृत है कि उसके लिए “सर्वे भवतु सुखिन” मूल्यहीन हो जाता है । बाजारीकरण के इस मुहिम में दहशत का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है । लोगों को सतर्क करने के बजाये आतंकित किया जा रहा है । जीते जी हर आदमि मानसिक रुपसे मौत से जद्दोजेहाद में साँसे ले रहा है । वह अपने परिवार की सलामती के लिए चिन्तित है । महामारी में उपर से आनेवाली आर्थिक तंगी की संभावना उसे खाये जा रही है । आनेवाले दिनों में उसकी गुजरबसर बिल्कुल अनिश्चित है ।
पिछले साल की तरह इसबार भी कोरोना के बढते प्रकोप के आगोस में मेरा गृहनगर पोखरा भी आतंकित हो चला है । पहले सप्ताह प्रशासन ने शहर में परिवहन के साधनों के आवागमन में आधे संख्या में सिमित करने का ऐलान कर दिया था । मास्क पहनना और सेनिटाईजर इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया है । लोग अक्सर कह रहे हैं कि यह लकडाउन का ही पूर्वाभ्यास है । राजधानी काठमाण्डौ में अस्थाई तौर से रहरहे बाहर के लोगों को लकडाउन के पहले ही घरों को वापस लौट जाने का समय दिया गया है । पर अब आवागमन पर रोक लगाया गया है । अत्यवश्यकिय काम को छोडकर लोगों को बाहर न निकलने का फरमान जारी किया जा चुका है । नौ महिने पहले की स्थिति फिर से लौट चुकी है । घरों में निठल्ले पडे रहने की स्थिति लोगों को परेशान कर रहा है । अनिश्चिता को निबटने के लिए लोगों के पास कारगर योजना नहीं है ।
शुरुआती दिनों में बडों की कोरोना महामारी को लेकर माथापच्ची से से हटकर, कुछ दिनों तक मैं कोरोना के ईस आतंक का छोटे बच्चों पर पड रहे प्रभाव को थोडा जानने की फिराक में लगा । बच्चों की मानसिकता पर अच्छा और बुरा असर उनके बाँकी जीवन को काफी हद तक प्रभावित करता है । इसलिए यह बच्चों की मानसिकता पर पडनेवाले असर को लेकर अविभावकों और शिक्षकों सतर्क रहने की सलाह बाल मनोवैज्ञानिक देते रहे हैं ।
उनदिनों जहाँ कहीं घर से बाहर दो तीन बच्चे इकट्ठे मिलते हैं, मैं वहीं पर उनसे कुछ गप्फे मार लेता था और कोरोना पर उनके समझ को टटोलने कि कोशिस करता था । पहले दौर में बडे लोग खुद की आवश्यकता बोध से न सही पुलिस की फटकार की डर से माक्स पहनने के आदि हो चुके थे । कोरोना संक्रमण के कमी के बाद प्रशासन ने भी कुछ ढील देना शुरु कर दिया था । इक्का दुक्का लोग ही माक्स पहनते दिखाई देने लगे थे । अब फिर कोरोना का दूसरा झट्का शुरु हो गया है और पुलिस की फटकार भी शुरु हो गई है । बडे लोग भी फिर से माक्स पहनने लगे हैं । परन्तु अब भी माँ बाप की नजरे चुराकर बाहर निकले अधिकतर बच्चों को मैं अक्सर बगैर माक्स पहने हुये ही खेलते देखता हुँ । हाँ, वे अगर अविभावकों के साथ बाहर दिखाई देते हैं तो बशर्ते माक्स पहनते हैं । बडों के डाँट के बावजूद वे कभी कभार माक्स उतार कर हाथ में लेते हैं । बडे उन्हे डाँटने से कतई बाज नहीं आते हैं । फिर बडी झिझक के साथ उन्हें माक्स पहनना ही पडता है । बेचारों के सामने इसके अलावा दूसरा चारा शेष नहीं होता । इससे मैं निष्कर्श निकालता हुँ कि अधिकतर बच्चों को माक्स पहनने से चीढ है । पासवाली गली में अधखुले एक परचुन के दुकान के सामने विनमाक्स पहने खडा एक बच्चे से मैंने पुछा– मुन्ना माक्स पहने क्यों नहीं हो ?
उसने तपाक से कहा – ”घर में माक्स है ।“
फिर क्यों नहीं पहने ?
उसने शायद अंधेरे में तीर चलाते हुये कहा– “माँ पहनने नहीं देती है ।”
सारा दोष माँ के मत्थे डालकर जनाब खुद को दुध से धुला दिखाने की फिराक में थे । मैनें पुछा– अच्छे बबुआ ये बताओ कि माक्स क्यों पहना जाता है ? उसने आसपास देखा, दुकान में जल्दबाजी में एकं काला कलुटा आदमी कुछ खरिद रहा था । फिर वह मेरे ओर मुड, आँखे फडकर बडे अनोखे अन्दाज में उस ने कहा– “जानते ह,ैं भूत से बचने के लिए मुँह बन्द करना पडता है ।”
बाप रे..... तुम ने तो मास नहीं पहन रखा है –मैने उससे पुछा । वह कुछ नहीं बोल पाया । दोनों बाहों को अपने सर के उपर फैलाते हुये अंगडाइं लेने का अभिनय करने लगा । इतने में उसने बाँयीं ओर आती अपनी माँ को देख लिया फिर कुछ कहे बगैर ही बिजली की भाँती दायीं ओर की पतली गली से नौ दो ग्यारह हो गया । मैं उसकी ओर अपलक तब तक देखता रहा, जबतक वह दृश्य से गायब नहीं हुआ । माँ ने उसे देख ही लिया था । वह भी उसी भंगिमा के साथ उसी पतली गली की ओर भागी । दुकानदार ने दुकान के अन्दर से हँसते हुये कहा “रुकमणी के माँ बेटे भी रोज आँख मीचैनी खेलते है, लडका बडा नटखट है ।” बच्चों की तरह भागती उसकी माँ के पिछे खुले लम्बे काले बाल और पल्लु हवा में लहरा रहे थे । शायद वह बच्चे की हरकत से आपे से बाहर हो गयी थी और भूल गई थी कि वह अब बच्ची नहीं है । घर के बरामदे में खडी दो औरतें उसे देखकर हँस रही थी । मैनें उसको भी नजर से गायब होने तक देखता रहा ।
बच्चों में भूतों के प्रति अजीबोगरीब धारणाएँ देखने को मिलती है । इस दौरान तकरीबन दश में से तीन बच्चे कोरोना को भूत मानते पाये गये । इन भूतवाले बच्चे में से एक के माँ बाप से बजह बताए विना मैं मिला । उनसे बातचित करने के बाद मुझे पता चला कि वे बच्चे वश में रखने के लिए बात बात पर भूत की दूहाई देते हैं । मुझे लगता है कि ऐसी हरकतों से बच्चों की कोमल मानसिकता पर बिल्कुल बुरा असर पडता है । बच्चे अपनी दैनिकी में बहुत सारी अज्ञात और आश्चर्य लगनेवाली परिस्थितियों का सामना करते हैं । उन में से, हरेक डर उत्पन्न करनेवाली चीज और परिस्थिति को वे भूत मान बैठते हैं । ऐसा डर उनके लिए बालशुलभ जिज्ञासा की व्यवहारिक प्रकृया को अवरुद्ध करता है ।
दूसरीबार मैं सडक के किनारे खेलते तीन बच्चों से मिला । तीन में से दो ने माक्स पहन रखे थे । कोरोना क्या है ? मैंने हाथ में काठ के एक टुकडा लिये खडा साँवले बच्चे से पुछा ।
“कोरोना छोटा सा किडा होता है जो दिखाई नहीं देता” – बिनमाक्स पहने दूसरे बच्चे ने तुतलाते हुये बोला । मैने जरा और नजदीक जाकर फिर पुछा –देख नहीं पाते हो तो पता कैसे चला ? “सभी का जवाब था कि स्कूल में मीस बताती है घर में पिताजी भी बताते हैं ।” स्कूल में पढने क्यों नही गये ? मैं फिर से जानने की कोशिस की ।
बच्चे ने मायूसी भरे अन्दाज में कहा – “घर में ही ओनलाईन पर पढते हैं ।”
मैने उसे भाँपते हुये पूछा – ओनलाईन में पढना अच्छा लगता है ?
दो लडकों ने एक साथ कहा – “स्कूल में दोस्तों के साथ खेलने में मजा आता है । हर रोज घर में ओनलाईन पर पढना मुश्किल लगता है ।” पास में खडी लडकी ने भी उपर से कहा – “घर में पापा की एक मोवाईल है जो अक्सर खराब रहता है ।” इतने दूर से एक और बच्चे ने उन्हे इशारे से बुलाया और सभी दौडते हुये उसी ओर चले गये, मैं अकेला रह गया । मतलब बच्चे ओनलाईन की पढाई की झमेले से तंग हैं । अन्य दश बच्चों में सात बच्चे भी ओनलाई की पढाई के प्रति सकारात्मक नहीं दिखे ।
बच्चों की ऐसी समस्याओं के समाधान के लिए अविभावक, शिक्षकों की सक्रियता के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है । कोरोना के प्रकोप के समय में बच्चों को सचेत जरुर करनी चाहिए परन्तु उन्हे भयावह दृश्य और समाचारों से परहेज पर रखना ही उचित रहेगा ।
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