क्या भारत अब भी अमरीका की राह देख रहा है ?ं

        इस समय अमेरीका के विरुद्ध चीन और रुस का गठजोड मजबुती से आगे बढ रहा है । भारत भी इस ओर सक्रियता दिखा रहा है । जाहिर है अबतक भारत के अमरीका के साथ अच्छे सम्बन्ध में रहा है । क्या भारत आनेबाले समय अमेरीका को छोड रुस और चीन के पाले में रह पायेगा ? 



अमेरीका से दोस्ती के नाम पर उम्मिदें जितनी भी की गयी हो, आखिरकार उसने ने भारत पर पच्चिस से बढाकर पचास फिसद टैरिफ लगा ही दिया । फिर भी भारत ने टैरिफ के मामले में चीन की तरह प्रतिवाद नहीं किया है । इसबिच दोनों देशों के बीच कई दौर की वार्ताएँ भी हो रही थी परन्तु अब यह लगभग रुक सी गई है । बढते टैरिफ से अर्थव्यवस्था पर पडनेवाले नकारात्मक प्रभाव पर भारत में चिन्ता थी, जो स्वभाविक है । चुँकि बिते साल तक दोनों देशों के हर क्षेत्रों में बहुत अच्छे सम्बन्ध चल रहे थे ।

 इस तनातनी के दौर में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी अगस्त ३० को दो दिन के दौरे पर जापान पहुँचे । वहाँ कई महत्वपूर्ण सम्झौते हुये फिर अगस्त ३१ को संघाई सहयोग संगठन   (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में भाग लेने चीन पहुँचे । एससीओ का भारत सदस्य है । बदलते शक्ति समिकरण के कारण भी प्रधानमंत्री मोदी का चीन में होना बहुत कुछ संकेत करता था । चीनी राष्ट्रपति सी के साथ मुलाकात और रुसी राष्ट्रपति पुतीन के साथ किसी कार में ४५ मिनट अकेले में हुई मुलाकात ने पश्चिम को चौंका दिया । भारत का बदलता रुख का उन्हें शायद अन्दाजा भी नहीं था । पुटीन औैर मोदी की इस मुलाकात को लेकर चारों ओर कौतुहलता थी । जब पुतिन लौटकर रुस पहुँचे तब पत्रकारो ने उनसे यही सवाल पुछा । उन्होने कहा— भाषा की समस्या के कारण कुछ समय ही बात हो पायी, अलास्का बैठक में ट्रम्प के साथ हुई कुछ बातें हुई । क्या पुतिन सचमूच सत्य बोल रहे थे या फिर कुछ छुपा रहे थे ? इसका यकिन नहीं है ।
     
भारत और अमरीका के अच्छे रिश्तों के बावजूद बादवाले दिनों में अमरीका का रुख सभी देशोें के प्रति कडवा ही है, इन हालात में,ं दुनियाँ को दिखाने के लिए ही सही थोडा कुछ  भारत को भी यहसब झेलना पड रहा होगा, कुछ ही समय में सब उम्मिदों के मुताबिक ठिक हो जायेगा — ऐसा माना जा रहा था । पर ऐसा हुवा नहीं । अमरीकी शिकंजा में भारत कसता गया ।

 भारत पर अमरीका का इल्जाम है कि वह प्रतिबन्ध के  बावजूद बिते तीन सालों से युक्रेन को तबाह कररहे रुस से भारी पैमाने पर कच्चा तेल खरिद कर उसे युद्ध लडने के लिए धन उपलब्ध करा रहा है और रुस से आयातित कच्चा तेल दुनिया के बाजारों में बेचकर मुनाफाखोरी करता है । ऐसा तो नहीं है कि अमरीकी प्रतिबन्ध के बावजूद अकेला भारत ही रुस से कच्चा तेल खरिदता रहा है । युरोप के कुछ देश और अमरीका स्वयम् भी तो प्रतिबन्ध के बावजूद रुस से खरिददारी कर ही रहे हैं !
  
रुस से सब से अधिक मात्रा में कच्चा तेल चीन खरिद रहा है फिर भारत पर ही बक्रदिृष्ट क्यों ? विदेशमंत्री जयशंकर ने तो यहाँतक खुलासा दिया कि अमरीका के कहने पर ही रुस से कच्चा तेल खरिदा गया था ताकि विश्व बाजार में तेल की कीमत को बढने से रोका जा सके । यह बयान तो और भी चौंका देनेवाला था । मतलव, भारत के साथ धोका किया गया था ।

 चीन अमरीकाको टक्कर देने के लिए हर तास के पत्ते खोलता रहा है, क्या इसिलिए उसे रिहायत है ! अमेरीका को दबाव में  रखने के  लिए चीन के जितने पत्ते भले ही भारत के पास नहीं है पर पत्ते तो भारत के पास भी तो हैं । भारत दुनिया में तेजी से उभरता शक्ति राष्ट्र है । दुनियाँ के शक्तिकेन्द्रों के लिए भारत का रणनीतिक महत्व बढरहा है । ऐसी स्थिति में, शायद अपने पत्तों की समझ स्वयं भारत को नहीं है या फिर दोस्ती के चक्कर में पत्ते खोल नहीं पा रहा है । जो भी हो अब पानी सर के उपर हो गया है ।
 
असली मसला रुस से कच्चा तेल खरिदने का नहींं है । यह तो सिर्फ एक बहाना है । अमरीका चाहता है कि भारत अमरीका के खिलाफ वहुध्रुविय विश्वका वकालत करनेवाले  चीन और रुस के ब्रिक्स , सांघाई सहयोग संगठन और रिक जैसे मंचों से अलग हो जाये । रुस और चीन से दूरि बनाए रखें । जाहिर है भारत अमरीका के नजदीक होते हुये भी रुस और चीन के साथ भी सन्तुलित सम्बन्ध में था । अमरीका के साथ व्यापार में भारत फायदे में है इसलिए व्यापार घाटे को कम करने के लिए भारत के कृषि बाजार को अमरीका के लिए खुला हो । अगर भारत यह सब करने को तैयार हो जाता है तो संभवतः सालभर पहले की स्थिति लगभग वापस होने की संभावना थी  । ब्रिक्स की कमजोर कडी मानते हुये ट्रम्प भारत पर दबाव बढा रहे है । भारत के बदलते रुख देखकर लगता है उसे यह मंजुर नहीं । इसलिए भारत इनदिनों चीन और रुस से नजदिकी बढाने में प्रयासरत दिखता है । अपने से दूर जाते भारतको देखकर अब ट्रम्प ने यहाँ तक कहा कि भारत जिरो टैैरिफ पर सहमत हो गया है परन्तु अब समय बित चुका है ।
       
 पिछले ग्यारह सालों में भारत के साथ अमरीका के सम्बन्ध इतने प्रगाढ हो गये थे कि कुटनीति, रणनीति और व्यापारिक रिश्तों से भी उपर उठकर बडे नेताओं की नीजी घनिष्टता भी उत्कर्ष तक पहँुच गया था । भारत और  अमरीका के रिश्तों मे कुटनीति और दोस्ती दोनो को इसकदर खिचडी बना दिया गया था कि कुटनीति को ठिक से पहचान पाना मुश्किल हो गया था । 

   भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की दोस्ती को दुनिया में दाद दिया जाने लगा था । दोनो नेतां जब साथ होते थे तब आसमान में बिजली कडकने की आवाज भी कुछ लोगों ने सुना  था ।  अमरीका के साथ भारत के भी डंके बजते थे । डंके की थर्रराहट से चीन पाकिस्तान बेहोश हो जाते थे । जनजन में ट्रम्पप्रति अपार श्रद्धा का सैलाव छलकता दिखाई देता था । भारत की मिडिया ने भी इस अनोखी मित्रता को बखान करने में कोई कसर नहीं छोडा था । कुछ लोगों ने हिन्दु देवी देवताओ से चुनाव में ट्रम्प की जीत की याचना भी किया था । दुसरीबार ट्रम्प के जितने पर जस्न भी मनाया गया था । लगता था ट्रम्प के जीत से भारत की तरक्की का सिधा सम्बन्ध है । इस तरह के अतिरंजनाओं कुटनीतिक घरातल को बिल्कुल धुंधला कर दिया था ।

ट्रम्प दुसरीबार जीतकर आते ही धडाधड सभी पर टैरिफ के कोढे बरसाने लगे । कईबार तो उन्होने भारत को नीचा दिखाने में भी कोई कसर नही छोडा । उनके रौद्र रुप को देखकर भी विश्वास करना कठिन था । कहाँ वह मित्रता कहाँ यह रौद्र रुप ! हकिकत को स्वीकार करने के अलावा अब दूसरा चारा बाँकी नही बचा था । खुशहाल ख्वाव जमिदोज हो गया था । दोनों देशों के रिश्ते में इस हद तक गिराव देखना पडेगा, यह विगत मे कभी सोचा ही नहीं गया । जो भी हो इससे शिक्षा लेने की जरुरत है । अमरीका युरोप के अपने पारम्परिक देशों को भी भारी दुविधा में डाल दिया है तो भारत कैैसे बचता ।

तमाम रस्साकसी के बाद भी एक सवाल बचा रह जाता है कि सचमूच भारत आनेवाले दिनों में अमरीकी  वर्चस्व के खिलाफ बने गठबन्धनों में सहज तालमेल बिठा पाएगा ? इस गठबन्धन में चीन, रुस, उत्तर कोरिया जैसे गैर लोकतन्त्रिक देशों का प्रभाव है । दुनिया का बडा लोकतान्त्रिक देश भारत इन गठजोड में सहज महसुस कर पायेगा ? ताकतवर चीन के साथ तनावपूर्ण सम्बन्ध के साये में उसके साथ सहकार्य कितना संभव हो पायेगा ? इसी साल जून में पाकिस्तान के खिलाफ की गई अपरेशन सिन्दूर के दौरान चीन का भारत के विरुद्ध  पाकिस्तान के साथ खडा होने की स्थिति को भुलाया जा सकेगा । विगत में देखें तो चीन के ही कारण भारत को अमरीका के नजदीक होना पडा था । चीन के खिलाफ भारत और अमरीकी स्वार्थ में समानता ने ही दोनों को साथ खडा किया था । चीन के ही कारण  सभी पडोसी देशों में भारत का प्रभाव कमजोर हो चला है । भारत चारों ओर से चीन के घेराव में है । आर्थिक और नवाचार के क्षेत्र में चीन की भारी बढत के दबाव में भारत है ।
 
   अमरीका में ट्रम्प के नेतृत्व में चले दक्षिणपंथी आँधी के कारण आये अप्रत्याशित बदलाव ने जो असहज स्थिति उत्पन्न हो गया है उसका ज्यादे दिनों तक रहने के आसार कम ही हैं । ट्रम्प की नीतियों का अमरीका में ही आलोचना होरहा है । टैरिफ के चलते वहाँ के अर्थतन्त्र मे भी नकारात्मक असर दिखाई देने लगे हैं । हो सकता है कुछ समय में  ट्रम्प को कुछ कदम पिछे हटना पडे । अगर इसी राह पर वे आगे बढते हैं तो भी चारसाल बाद हालात बदलने की संभावना प्रबल है । जो भी हो भारत को अब एकसाथ रुस और अमरीकी दो नैया में सफर करना असंभव हो सकता है ।    


 

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